31.7.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 31 जुलाई 2022 का सदाचार संप्रेषण

 नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे,

त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।


(हे वात्सल्यमयी मातृभूमि, तुम्हें सदा प्रणाम! इस मातृभूमि ने हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह और ममता दी है)



प्रस्तुत है बुद्धिसख आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 31 जुलाई 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/2


ये सदाचार संप्रेषण ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, शौर्य, शक्ति, संयम और सदाचरण आदि का समन्वयात्मक प्रस्तुतीकरण हैं 


इनका मूल विषय है



उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)


अर्थ - उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में  दुर्गम मार्ग वाला ज्ञान प्राप्त करो ।


हमारा उद्देश्य है


परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं

समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥


वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः



बहुत से विकारों, जिनका प्रभाव मन बुद्धि शरीर पर पड़ता है, से ग्रस्त होने के बाद भी मनुष्य यदि चिन्तन करे तो उसे लगता है मैं यह ही नहीं कोई और हूं


अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण भगवान् कहते हैं



वासांसि जीर्णानि यथा विहाय


नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।


तथा शरीराणि विहाय जीर्णा


न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।


जीवात्मा पुराने शरीरको छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरों को प्राप्त करता है।



लेकिन यह अनुभूति बहुत कठिन है हमें तो वस्त्रों से घर से अन्य भौतिक वस्तुओं से लगाव रहता है लेकिन क्षणांश भी हमें इनके प्रति लगाव न रहे तो इसे परमात्मा का  प्रसाद समझना चाहिये



यह प्रसाद हमें मिले इसके लिये आचार्य जी आज भी प्रयासरत हैं आचार्य जी के जीवन की लम्बी साधना का परिणाम है कि आज भी अद्वितीय शिक्षक के रूप में इन सदाचार संप्रेषणों के माध्यम से आचार्य जी हमें प्रसाद रूप में उद्बोधन दे रहे हैं


यह प्रसाद तुलसीदास जी भी चाह रहे हैं  रामचरित मानस की रचना करने के बाद उन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली उसके बाद भी वे 

विनयपत्रिका में कहते हैं



कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो ।


निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥१॥


जदपि बिषय - सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो ।


तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥२॥


जनम अनेक किये नाना बिधि करम - कीच चित सान्यो ।


होइ न बिमल बिबेक - नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥३॥


निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहिं आन्यो ।


तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥४॥


...ऐसे तालाब से कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदने  में ही सारा जीवन बीत गया


गीता में भी



समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।


शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।12.18।।



तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।


अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तमान्मे प्रियो नरः।।12.19।।



जिसको निन्दा और स्तुति दोनों ही बराबर लगती हैं जो मौन  है, जो किसी छोटी सी छोटी वस्तु से भी सन्तुष्ट है, जो अनिकेत है,  स्थिर बुद्धि का वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है


इसके अतिरिक्त आचार्य जी का आनन्द आचार्य जी के साथ एक कमरे में रहने का कौन सा प्रसंग था केशवदास  कौन थे जानने के लिये सुनें