30.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 30 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८५ वां* सार -संक्षेप

 सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।

तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 30 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८५ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६७

शिक्षा विषय को लेकर छोटी छोटी बैठकें करके चर्चा करें



हम ईश्वर की ओर से इस संसार रूपी नाट्य-मञ्च पर भेजे गए एक कर्मयोद्धा हैं। हमारा जन्म मनुष्य के रूप में हुआ है और मनुष्य होना केवल एक जीव नहीं, बल्कि एक उत्तरदायित्व है  क्योंकि मनुष्य कर्मयोनि है।

इस जीवन का उद्देश्य केवल भोग या विश्राम नहीं, बल्कि सत्कर्म के माध्यम से अपने मनुष्यत्व की अनुभूति करना है। हमें अपने व्यक्तित्व को उन्नत बनाना है, उसका उत्कर्ष करना है  परन्तु यह उत्कर्ष केवल आत्मकेंद्रित न होकर समाजोन्मुखी होना चाहिए। क्योंकि समाज ही वह आधार है जिसने हमें संस्कृति, संस्कार और सभ्यता दी है अतः यह हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम भी उस समाज के प्रति उत्तरदायी बनें। अपने कर्म, व्यवहार, ज्ञान और सेवा के माध्यम से समाज के विकास में सहभागी बनें  

हमारा एक कर्तव्य है कि हम अपनी उस विलक्षण शिक्षा पद्धति को जानें जिसके आधार पर हम विश्व गुरु बने और उस शिक्षा से भावी पीढ़ी को भी परिचित कराएं 



आज समाज में बढ़ते हुए पारिवारिक विघटन, जैसे तलाक की बढ़ती घटनाएँ, केवल सामाजिक या आर्थिक कारणों से नहीं हो रही हैं, बल्कि इसका मूल कारण है व्यक्ति का अपने स्व को न पहचान पाना। जब कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, अपने भावों, अपने कर्तव्यों और जीवन-मूल्यों को नहीं समझता, तब उसके भीतर अस्थिरता, असंतुलन और भ्रम उत्पन्न होते हैं। इसका  कारण हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति भी है। शिक्षा में न तो जीवन के उच्च आदर्शों की स्थापना हो रही है, न ही शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच आत्मीय संवाद बन पा रहा है। शिक्षक स्वयं भ्रम और संदेह की स्थिति में पढ़ाता है, और विद्यार्थी भी संशय और भय के साथ सीखता है। ऐसी शिक्षा आत्मविश्वास नहीं देती, केवल सूचनाएँ देती है, जिससे जीवन का संतुलन नहीं बन पाता।


इसलिए आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा की, जो आत्मबोध उत्पन्न करे, विश्वास का संचार करे और मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराए। यही संतुलित और सुदृढ़ समाज की आधारशिला होगी।

तुलसीदास जी ने  मानस में ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए जिनमें समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उभार झलकता है जैसे सती अनसूया द्वारा मां सीता को पतिव्रता के लक्षण बताना आदि


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नाना जी की जर्मनी यात्रा की चर्चा क्यों की जर्मनी में राष्ट्र -धर्म के संस्कार किस प्रकार दिए जाते हैं  व्यापार में धर्म की दृष्टि क्यों आवश्यक है जानने के लिए सुनें

29.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 29 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८४ वां* सार -संक्षेप

 " प्रचण्ड तेजोमय शारीरिक बल, प्रबल आत्मविश्वास युक्त बौद्धिक क्षमता एवं निस्सीम भाव सम्पन्ना मनः शक्ति का अर्जन कर अपने जीवन को निःस्पृह भाव से भारत माता के चरणों में अर्पित करना ही हमारा परम साध्य है l "


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 29 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८४ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६६

दिनचर्या बनाएं मासिकचर्या वार्षिकचर्या बनाएं सुस्पष्ट लक्ष्य लेकर चलें

जो प्राप्त हो रहा है उसका आनन्द मनाएं और जो प्राप्त नहीं हो पा रहा है उसके लिए निश्चिन्तता धारण करें



आचार्य जी निरन्तर हमें आत्मानन्द की प्राप्ति तथा जीवन में शक्तिसम्पन्नता के संचार हेतु प्रेरित करते हैं यह हमारा सौभाग्य है। हमारा कर्तव्य है कि हम उनके द्वारा प्रदत्त प्रेरणास्पद वचनों का श्रवण कर, उन्हें आत्मसात् करें।

जब हम इन उद्बोधनों को श्रद्धापूर्वक विश्वास पूर्वक ग्रहण करेंगे, तब हमारे अन्तःकरण में निहित ब्रह्मतत्त्व  रामतत्त्व  सक्रिय हो सकता है। यह तत्त्व आत्मबोध के रूप में प्रकट होकर हमें न केवल आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत करेगा, अपितु जीवन में स्थायी आनन्द का अनुभव भी कराएगा l


विशेषतः प्रातःकाल, जब यह तत्त्व जाग्रत रहेगा, तब हमारे मन, बुद्धि और चित्त में समरसता बनी रहेगी। इस अवस्था में हम संसार के विविध विक्षेपों से अछूते रहकर, दिव्य चेतना का अनुभव कर सकते हैं

अतः यह आवश्यक है कि हम इन प्रेरणाओं को नियमित प्राप्त करें और आत्मविकास की दिशा में अग्रसर हों


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने डा राजबली पांडेय कृत हिन्दू धर्मकोश  की चर्चा में क्या कहा, भैया पङ्कज जी भैया मुकेश जी का उल्लेख क्यों हुआ, भूमि जल और अग्नि का उल्लेख करते हुए आचार्य जी ने सर्जना और विलोपन में सूक्ष्म और स्थूल को कैसे अनुस्यूत किया , मोदीत्व के भाव से आवेशित होने पर कौन से कार्य हो सकेंगे जानने के लिए सुनें

28.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 28 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८३ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 28 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८३ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६५

श्री रामचरित मानस कथा सुनें और अपने भीतर रामत्व का प्रवेश कराएं  क्योंकि रामत्व पौरुष पुरुषार्थ पराक्रम और अन्याय के हनन वाले साधन का प्रतीक हैl ऋषि अत्रि भी भगवान् राम के लिए कहते हैं

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥

निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥

आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य बुद्धि के परे है। आप तो तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी हैं l




श्री रामचरितमानस में ऐसा जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया गया है जिसमें यह स्पष्ट होता है कि सीमित साधनों में भी महान् कार्य संपन्न किए जा सकते हैं। भगवान् राम जब अयोध्या से वनवास के लिए प्रस्थान करते हैं, तो वे किसी विशाल सेना या राजकीय वैभव के साथ नहीं जाते। उन्होंने केवल धर्म, सत्य, संयम और आत्मबल के आधार पर जीवन की चुनौतियों का सामना किया।उनका जीवन दर्शाता है कि यदि लक्ष्य स्पष्ट हो, मार्ग धर्ममय हो और संकल्प दृढ़ हो, तो साधनों की कमी कोई बाधा नहीं बनती। मानस इसी आत्मबल, साधना और पुरुषार्थ का प्रेरक ग्रंथ है। इसके सात काण्डों में *अरण्यकाण्ड* को विशेष महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है, यद्यपि प्रत्येक काण्ड का अपना स्थान है अरण्य काण्ड में  भगवान् राम का वनवास,मां सीता का हरण, राक्षसी विभीषिकाएँ और विपरीत परिस्थितियाँ दर्शाई गई हैं, जो मानव जीवन के संकटों का प्रतीक हैं। यहां कठिन परिस्थितियों में धर्म, संयम और धैर्य से निर्णय लेते हुए दिखाया गया है। इसका प्रतीकात्मक संदेश यह है कि जीवन एक अरण्य (जंगल) की तरह है, जहाँ विविध प्रकार के प्रलोभन, भय और कष्ट आते हैं, परंतु यदि पुरुषार्थ और विवेक से चलें, तो मार्ग भी निकलता है यही वह काण्ड है जहाँ से राम एक राजपुत्र से लोकनायक और तत्पश्चात् पुरुषोत्तम के रूप में उभरते हैं यह कांड जीवन-दर्शन और संघर्ष की दृष्टि से अत्यंत गूढ़ और शिक्षाप्रद है। इसका संदेश है कि भारत का एक एक राष्ट्र -भक्त शक्तिसंपन्न बनना चाहिए उसे संगठित रहना चाहिए ताकि भारत शक्तिसंपन्न बन सके वैभवशाली बन सके


राम -पथ को सुन्दर स्वरूप देने के सम्बन्ध में आचार्य जी ने क्या कहा ऋषि अत्रि की पत्नी मां अनसूया का उल्लेख क्यों हुआ भैया डा प्रमोद जी की चर्चा क्यों हुई  किसने कहा कि मानस की चौपाइयां मन्त्र हैं जानने के लिए सुनें

27.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 27 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८२ वां* सार -संक्षेप मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६४

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 27 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८२ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६४

यह वायवीय सदाचार वेला लगभग दस वर्षों से निरंतर संचालित हो रही है। इसका उद्देश्य है ऐसे सदाचारमय विचारों का प्रसार करना, जो केवल विचार न रहकर व्यवहार में परिणत हों। 


 


जब ये सदाचारयुक्त विचार हमारे जीवन में आचरण के रूप में उतरते हैं, तभी वे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र — तीनों के लिए श्रेयस्कर सिद्ध होते हैं।  


इस सतत प्रयास के माध्यम से एक सजग, सुसंस्कृत और उत्तरदायी नागरिक चेतना के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है तो आइये इसके महत्त्व को समझते हुए प्रवेश करें आज की वेला में


आचार्य जी श्री रामचरित मानस के *अरण्यकाण्ड* अर्थात् वन के कांड को ध्यानपूर्वक पढ़ने का परामर्श  प्रायः देते हैं 


अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥



 क्योंकि यह काण्ड मानव जीवन के संघर्षों और पुरुषार्थ की उत्कृष्ट झलक प्रस्तुत करता है।  


मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट, संकट आते हैं और दुःखद घटनाएँ  घटित होती हैं। इन परिस्थितियों में एक पुरुषार्थी व्यक्ति किस प्रकार धैर्य, विवेक और मर्यादा के साथ उनका सामना करता है — यह अरण्यकाण्ड में भगवान् श्रीराम के जीवन से भलीभाँति समझा जा सकता है।  


श्रीराम हैं तो भगवान् किन्तु नरलीला कर रहे हैं, उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया है — अर्थात् पुरुषों में श्रेष्ठ। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि पुरुषार्थ (साहस, कर्तव्य, धैर्य और सत्कर्म) ही मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है।  


राम का पुरुषार्थ केवल बल या बुद्धि तक सीमित नहीं, बल्कि उसमें मर्यादा,त्याग और धर्मनिष्ठा भी सम्मिलित है।  

देवता भोगयोनि है और मनुष्य कर्मयोनि है

देवताओं के राजा इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान् मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो॥3॥


सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥

जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥3॥


वह मूढ़, मंदबुद्धि कौआ सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्री रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर सींक का बाण संधान किया॥4॥

यह घटनाएं कपोल कल्पना नहीं है हमें इन पर विश्वास करना चाहिए 

जिसके मन में आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है वह पुरुषार्थ करने में घबराता नहीं है और समस्याओं को कभी अनदेखा नहीं करता l

India कौन कहता है

भारतवर्ष की संपत्ति क्या है  रावण को मारने के लिए सीता जी की आवश्यकता को आचार्य जी ने कैसे स्पष्ट किया जानने के लिए सुनें

26.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 26 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८१ वां* सार -संक्षेप मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६३

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 26 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८१ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६३

उत्कृष्ट भावनाओं को कर्मों में परिवर्तित करें



हमारे मन में जो संवेदनाएँ (भाव) उत्पन्न होती हैं, उनसे विचार जन्म लेते हैं और वे विचार आगे चलकर क्रियाओं का रूप लेते हैं।जब हम समाज में कार्य करते हैं, बोलते हैं या व्यवहार करते हैं, तब हमारे भीतरी भाव और विचार ही बाहरी क्रियाओं के रूप में प्रकट होते हैं।इस प्रकार,हमारा सम्पूर्ण जीवन चाहे वह अंतर का हो या बाह्य  इन तीनों के समन्वय से चलता है। यदि यह संगम संतुलित और सकारात्मक हो, तो जीवन भी सुसंस्कृत, उद्देश्यपूर्ण और कल्याणकारी बनता है।

आचार्य जी यही नित्य प्रयास करते हैं कि हम इन्हें संतुलित और सकारात्मक बनाएं हमारे विचार ऐसे हों जो पूज्य हों हमें विचारों के झंझावातों में उलझना नहीं चाहिए अन्यथा हम व्यथित ही रहेंगे


इस देश और समाज ने  हमें सभ्यता, संस्कार आदि प्रदान किए हैं इसलिए हमारा नैतिक और कर्तव्यबोध यह होना चाहिए कि हम भी देश और समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभाएँ और उसके उत्थान में योगदान दें।


इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए हमारी संस्था का  जो ध्येय-वाक्य है उसके अनुसार राष्ट्र और समाज के प्रति हमारे अन्दर पूर्ण समर्पण, आस्था और सेवा की भावना होनी चाहिए l हमें अनुशासित भी रहना चाहिए क्योंकि अनुशासन से ही संस्था शक्तिमती बनती है l हमें अपने भीतर के कादर्य को नष्ट करने के लिए संकल्पित रहना चाहिए संस्था को सशक्त बनाने के लिए हम सदस्यों के बीच आत्मीयता प्रेम पल्लवित होना चाहिए

हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानें, *"चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्"* की अनुभूति करें

न कि यह कहें 

*मैं अपरिचित स्वयं से ही हो गया हूं*


हमारे भीतर यह भाव  स्थिर हो जाए कि *परमात्मा ही सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ और सर्वत्र व्याप्त है*, तो हमारा मन स्थिर रहेगा, भय दूर होगा और जीवन में संतुलन व शांति बनी रहेगी। ऐसा विश्वास हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है और जीवन में धैर्य, श्रद्धा व समर्पण की भावना जाग्रत करता है। अध्यात्म में शौर्य अवश्य ही सम्मिलित होना चाहिए अन्यथा संघर्षों में हम घबरा जाएंगे 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने धर्म ध्वजा की चर्चा में क्या कहा, गुरुजी पर लिखी कौन सी कविता जो *अपने दर्द मैं दुलरा रहा हूं* की कविता संख्या ३३ है सुनाई जानने के लिए सुनें

25.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 25 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५८० वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 25 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५८० वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६२


हमारा इतिहास विविध आयामों से युक्त, बहुरंगी और गौरवशाली रहा है। हमें अपने वास्तविक इतिहास को जानने की आवश्यकता है, ताकि वर्तमान परिस्थितियों से जूझने और उन्हें समझने का मार्ग प्राप्त हो सके।समय-समय पर भारतवर्ष में ऐसे महापुरुष अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने समाज को दिशा दी — जैसे आदि शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य, डॉ. हेडगेवार, श्री गुरुजी आदि ।  *पुरखों का वह जाज्वल्यमान यश मलिन कर रहीं संतानें* तो हमें अपनी संतानों को मार्गदर्शन देने की भी आवश्यकता है ताकि उनके भ्रम दूर हों



मनुष्य का मनुष्यत्व विनाशकारी न होकर सृजनशील होता है, परन्तु यह सर्जना तभी सार्थक होती है जब विकृति या विद्रूपता का विनाश किया जाए।  


विकृति का विनाश और सौंदर्य या स्वरूप का निर्माण ही सृष्टि का सनातन नियम है।

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।

उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।


 यही सनातन धर्म  जिसने मनुष्य को उसके प्राणों की अनुभूति कराई जिसने विद्या और अविद्या दोनों को संसार का सत्य बताया  जिसके अनुसार पूरी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है का वास्तविक स्वरूप है।  


जो यह विवेक न रखता हो कि क्या शुभ है और क्या अशुभ, क्या उचित है और क्या अनुचित — वह वस्तुतः मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।

जो मनुष्य अपने जीवन में किसी भी सद्गुण, धर्म, शिक्षा, तप, ज्ञान या सेवा को नहीं अपनाता, वह केवल शरीर से मनुष्य है, भीतर से वह जड़ और निष्क्रिय है — समाज और पृथ्वी पर बोझ है

हम भारतभक्तों को इससे इतर मनुष्यत्व की अनुभूति करनी चाहिए हमें अपने सनातन धर्म के वैशिष्ट्य की पहचान होनी चाहिए हमारे भीतर वह आग लगनी चाहिए हमारी जवानी जागनी चाहिए ताकि हम हर गांव गली में घूमने वाले जयचंदों के काफिले नष्ट करते चलें, हमें भारत की भास्वरता के लिए प्रयास करना है

इसके लिए नित्य हम चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन व्यायाम में रत हों उचित खाद्याखाद्य का विवेक रखें उचित संगति का ध्यान रखें


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने विवेक चूडामणि की चर्चा क्यों की  पजनवी कौन था जानने के लिए सुनें

24.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 24 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७९ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 24 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७९ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६१

हमें हर चीज का उपभोग त्याग की भावना से करना चाहिए 



धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।

अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥

जो व्यक्ति न धर्माचरण करता है, न अर्थोपार्जन करता है, न जीवन में कोई उद्देश्यपूर्ण कामना रखता है और न ही मोक्ष की ओर अग्रसर होता है, उसका जीवन केवल जन्म लेकर समाप्त हो जाने वाला निष्फल जीवन है।


मनुष्य देह प्राप्त कर कभी न दैन्य को वरो 

यह कर्मयोनि है स्वकर्म धर्म मानकर करो


हमारा एक धर्म आत्मधर्म भी है आत्म को पहचानना ही अध्यात्म है


हमें जब यह अनुभूति होती है कि वह परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है, यह जगत् भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत् पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है तो अध्यात्म का द्वार हमारे स्वागत के लिए खुला रहता है  और तब हम संकटों में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं जब परमात्मा संसार की सांसारिकता समेट लेता है तो आत्मदर्शन होता है आत्म के लिए सांसारिक वस्तुओं  का त्याग कर देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने कल संपन्न हुई बैठक की चर्चा की 

एकांत कब अच्छा लगता है भैया अरविन्द तिवारी जी की चर्चा विशेष रूप से किस कारण हुई  भैया राघवेन्द्र जी १९७६ आदि  का उल्लेख क्यों हुआ सूर्यास्त के समय आचार्य जी क्या विचार कर रहे थे जानने के लिए सुनें

23.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 23 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७८ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 23 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७८ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६०


कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार। साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।


कटु वाणी सबसे बुरी होती है, यह व्यक्ति के भीतर की सारी शांति और सहजता को जला देती है। अतः ऐसी वाणी कभी न बोलें इसके विपरीत, साधु पुरुषों की वाणी  जो जल के समान शीतल और अमृत के समान मधुर होती है, जो शांति और सुख प्रदान करती है, की भांति बोलें



प्रभातकाल में यदि हमारा अध्ययन, स्वाध्याय, चिन्तन, मनन जाग्रत हो जाए तो वह ब्रह्मवेला उत्साह मङ्गल सङ्कल्पसिद्धि की वेला बन जाती है

भाव, विचार और क्रिया का सामञ्जस्य करने के लिए यह वेला उत्तम है तो आइये इन्हीं अनुभूतियों के लिए प्रवेश करें आज की वेला में 



राम का रामत्व ही संसार का शिवतत्व है

और शिव का रौद्रदर्शन राम का ब्रह्मत्व है

राम रम जाते जहाँ जिस जीव के शिवप्राण में

बस, वहीं समझो उसी में ब्रह्मवाही तत्व है



राम जो अप्रतिम प्रेम,संयम,समर्पण,सेवा,शौर्य,शक्ति,सामर्थ्य का विग्रह हैं 


कागर-कीर ज्यौं भूषन-चीर सरीर लस्यौ तजि नीर ज्यौं काई।

मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभाय सनेह सगाई॥


संग सुभामिनि भाई भलो, दिन द्वै जनु औध हुतै पहुनाई।

राजिव लोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥



सुग्गों के पंख जैसे वस्त्राभूषण त्यागने के पश्चात् जिनका स्वरूप ऐसा प्रतीत हुआ जैसे जल से काई हट जाने पर वह निर्मल हो जाता है ऐसे राम। माता-पिता और प्रियजनों का स्वाभाविक रूप से सम्मान कर, सुंदर पत्नी सीता और प्रिय भाई लक्ष्मण को साथ लेकर, जैसे अयोध्या में दो दिन के अतिथि हों, वैसा भाव लेकर वनगमन के लिए  जो चल पड़े ऐसे राम

जो राग को अनुराग तक ले गये और फिर विराग में उसका समापन कर दिया ऐसे राम का रामत्व ही संसार के कल्याण का मूल तत्व है और शिव का रौद्र रूप राम के ब्रह्मस्वरूप को प्रकट करता है। जब कोई जीव अपने हृदय में कल्याण करने वाले भावों में राम को अनुभव करता है, तो वहीं ब्रह्म का साक्षात् वास होता है।



इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने लखनऊ में आज होने जा रही युगभारती बैठक की चर्चा की जिसमें संगठन पर विचार -विमर्श किया जाएगा,संगठन और एकत्रीकरणा में अन्तर को आचार्य जी ने कैसे स्पष्ट किया, जंगम तीर्थ किसके लिए कहा जानने के लिए सुनें

22.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७७ वां* सार -संक्षेप

 कभी उत्साह का उत्सव  निराशा की कहानी हूं 

जगत की साधना -सरिता -समय का दिव्य पानी हूं

स्वयं को भूलकर जड़ विन्ध्य जैसा विस्तरण होता

स्वयं को याद कर कैलाश जैसा दिव्य ज्ञानी हूं


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 22 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७७ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५९

प्रेम का विस्तार संगठन का आधार है अतः आपस में प्रेम के विस्तार के प्रयास करते रहें 


वर्तमान समय में हमारा समाज अनेक प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है, विशेषकर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों, परम्पराओं और मूल्यों को दुर्बल करने के प्रयत्न निरन्तर हो रहे हैं। ये प्रयत्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में सामने आ रहे हैं कहीं वैचारिक भ्रम फैलाकर, कहीं सामाजिक विघटन द्वारा, तो कहीं सांस्कृतिक जड़ें काटने के प्रयास से।


ऐसे में  हम सनातन धर्म  अर्थात् वह धर्म जो जीवन के सत् और तत् को व्याख्यायित करता है  जो कहता है कि व्यक्ति अपने कर्मों का स्मरण करे न कि शरीर का  जो विद्या और अविद्या दोनों को आवश्यक बताता है जो विनाश को ईश्वर की लीला मानता है और जो मनुष्य को मनुष्यत्व की अनुभूति कराता है,के अनुयायियों को केवल भावनात्मक नहीं, अपितु सजग, जागरूक, सतर्क और संगठित होने की आवश्यकता है। हमें स्थान-स्थान पर ऐसे जीवन्त संगठन खड़े करने होंगे या ऐसे संगठनों को साथ लेना होगा, जो समाज को जोड़ने का कार्य करें, लोगों को अपने धर्म, संस्कृति और परम्परा के प्रति आत्मबोध दें और साथ ही विघटनकारी शक्तियों का शास्त्र और शस्त्र दोनों से प्रतिकार करें।


यह आवश्यक इसलिए है क्योंकि आज अनेक ऐसी शक्तियाँ जो भले ही आधुनिकता, उदारवाद या प्रगतिशीलता के आवरण में हों वास्तव में सनातन जीवनदृष्टि को समाप्त करने का षड्यंत्र रच रही हैं। ये  धर्म को केवल एक रूढ़ि के रूप में प्रस्तुत कर युवा मन को उससे विमुख करना चाहती हैं।अतः आवश्यक है कि हम अपने लक्ष्य का ध्यान रखें l

इसके अतिरिक्त जो  हमारी संस्था युगभारती का आजीवन सदस्य बनता है वह हमें धन के साथ और क्या सौंप देता है भैया मनीष कृष्णा जी भैया  पंकज जी का उल्लेख क्यों हुआ पूजा पाठ के छंदों के भाव में जाने से आचार्य जी का क्या आशय है जानने के लिए सुनें

21.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७६ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 21 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७६ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५८


अध्ययन स्वाध्याय करने के पश्चात् हमारे लिए जाग्रत होने सतर्क सचेत सक्रिय रहने की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि परिस्थितियां अत्यन्त विषम हैं



हमारी संस्था *युगभारती'* चार प्रमुख आयामों पर कार्य कर रही है— शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सुरक्षा। इनमें शिक्षा मूल आधार है, क्योंकि शेष तीनों आयाम उसी पर निर्भर हैं।  


यदि व्यक्ति सुशिक्षित होता है, तो वह संस्कारित होता है। संस्कारों से युक्त व्यक्ति विचारशील होता है, और विचारशीलता ही उसके व्यवहार को मर्यादित, अनुशासित और समाजोपयोगी बनाती है।  


ऐसे संस्कारित, विचारयुक्त और उत्तम व्यवहार वाले व्यक्ति हर स्थान पर उपयोगी सिद्ध होते हैं। समाज में जागृति भी तब ही आती है जब ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़ती है।


हमारे स्वर्णकाल में शिक्षा ही हमारी विशेषता थी। उसी के बल पर हम त्यागी, तपस्वी, वीर, पराक्रमी और कर्मयोगी बनते थे। साथ ही, हम अनुसंधान, उत्पादन और नवाचार में भी अग्रणी थे। यही कारण था कि सम्पूर्ण विश्व में भारत की प्रतिष्ठा थी और हम विश्वगुरु के रूप में सम्मानित थे।


इसलिए आज भी यदि हम शिक्षा को केन्द्र में रखें और उसके साथ जीवन-मूल्य जोड़ें, तो राष्ट्र की पुनः वही गरिमा स्थापित हो सकती है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में शिक्षा, संस्कार, आचरण और समाजोत्थान के सूत्रों को अत्यन्त गूढ़, किन्तु सहज रूप में प्रस्तुत किया है। शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्जन नहीं, आत्मविकास और लोककल्याण भी है आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम मानस का अरण्य कांड अवश्य पढ़ें

किन्तु इस प्रकार का अध्ययन स्वाध्याय करने के पश्चात् हमारे लिए जाग्रत होना भी अनिवार्य है हम केवल इन्हें कल्पनालोक में विचरण के लिए ही न छोड़ दें परिस्थितियां अत्यन्त विषम हैं हमें जाग्रत होने सतर्क सचेत सक्रिय रहने की अत्यन्त आवश्यकता है अपने संगठनों को सशक्त बनाना भी अनिवार्य है हम जहां भी हैं वहां हमारी आंच लगनी चाहिए 


आचार्य जी ने इसके अतिरिक्त आचार्य श्री वीरेन्द्र जी की चर्चा क्यों की परसों लखनऊ में होने वाली बैठक के लिए क्या परामर्श दिया  भैया विवेक चतुर्वेदी जी भैया पुनीत जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

20.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 20 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७५ वां* सार

 चिन्तन मनन शक्ति संवर्धन और संगठन करना है

हर प्रयास से हिन्दु राष्ट्र को आत्मशक्ति से भरना है


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 20 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७५ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५७

 प्रत्येक सनातनधर्मी जागरूक,आत्मविश्वासी,  सक्षम बने, जिससे हमारा राष्ट्र सशक्त, सजीव और दीर्घकालिक रूप से उन्नत बन सके।


हमें चिन्तन और मनन के माध्यम से अपनी चेतना को जाग्रत करना है, आत्मविश्लेषण द्वारा अपने उद्देश्य को स्पष्ट करना है। इसके साथ ही, आत्मबल, सामर्थ्य और योग्यता का संवर्धन करना है, ताकि हम व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्तर पर अधिक समर्थ बनें।हमारे अन्दर देशभक्ति की भावना स्पष्ट रूप से विद्यमान रहे किन्तु देशभक्ति केवल भावना मात्र नहीं होनी चाहिए, अपितु उसमें शौर्य का तेज भी समाहित होना चाहिए। ऐसा शौर्य, जो राष्ट्र की रक्षा, मर्यादा और स्वाभिमान के लिए सतत जागरूक एवं सक्रिय हो l देशभक्ति में अध्यात्म की उपस्थिति अनिवार्य है। अध्यात्म व्यक्ति को संयम, विवेक, त्याग और सेवा की भावना प्रदान करता है, जिससे उसका शौर्य केवल उग्र नहीं, बल्कि मर्यादित, उद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक बनता है।

युगभारती के रूप में हमारा संगठन है संगठन का वास्तविक अर्थ यह है कि हम सब मिलकर, परस्पर सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना के साथ, उस उद्देश्य की निरन्तर चिन्ता करें जिसे हमने सामूहिक रूप से स्वीकार किया है।  


यदि हम सांसारिक समस्याओं, व्यक्तिगत उलझनों या तात्कालिक कठिनाइयों में फँसकर अपने मुख्य कार्य को टालते या स्थगित करते हैं, तो संगठन की शक्ति क्षीण हो जाती है। संगठन तभी सशक्त रहता है जब प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्य के प्रति सजग, निष्ठावान् और सतत सक्रिय रहता है।


किसी सांसारिक व्यवहार को आदर्श रूप में कैसे प्रस्तुत किया जाता है इसके लिए आचार्य जी ने एक प्रसंग बताया वह प्रसंग क्या था भैया आशु शुक्ल जी और भाभी भावना जी, भैया प्रमोद जी, भैया पुनीत जी का उल्लेख क्यों हुआ साकल्य की किस कविता की चर्चा हुई  अपने देश के अनुसंधानों को न जानने से क्या हानि होती है जानने के लिए सुनें

19.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी /अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 19 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७४ वां* सार -संक्षेप

 हम लोग खिलौने हैं एक ऐसे खिलाड़ी के 

जिसको अभी सदियों तक ये खेल रचाना है


विधाता की प्रकृति सर्वत्र अपने गुल खिलाती है

समूची सृष्टि को उसके रचे झूले झुलाती है


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष चतुर्दशी /अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 19 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७४ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५६

अपनी धुन के पक्के बनिए और लक्ष्य पर ध्यान रखिए



आचार्य जी नित्य एक ऐसी विषय वस्तु प्रस्तुत करते हैं जिससे हमें शक्ति शौर्य  पराक्रम विश्वास आस्था भक्ति धैर्य  शोभा संयम दृढ़ता तप त्याग आत्मस्थता आत्मबल की अनुभूति होती है और हमें जीवन बोझिल नहीं लगता साथ ही हमारे मानसिक विकार भी दूर होते हैं


यह संसार मनुष्य के लिए एक परीक्षा-स्थल है

 दुःख है, प्रश्न कठोर देखकर होती बुद्धि विकल है 

किंतु स्वात्म बल-विज्ञ सत्पुरुष ठीक पहुँच अटकल से

 हल करते हैं प्रश्न सहज ही अविरल मेधा-बल से


हमें यह भ्रान्ति नहीं पालनी चाहिए कि अध्यात्म  शान्तिपूर्वक विश्राम करने या निष्क्रिय रहने का संदेश देता है। वास्तव में, हम कर्मयोगी हैं निरन्तर जागरूक, सक्रिय और उद्देश्यनिष्ठ। अतः लक्ष्य की प्राप्ति तक हमें विश्राम नहीं करना चाहिए।  


हमारा उद्देश्य केवल स्वयं आनन्द में रहना नहीं, बल्कि सम्पूर्ण संसार को आनन्दमयी दृष्टि और जीवन प्रदान करना है।  


हमारे जीवन-दर्शन का मूल वाक्य "वसुधैव कुटुम्बकम्" सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की भावना देता है। किन्तु जब दुष्ट, शोषक या अहितकारी शक्तियाँ इस शान्ति को भंग करने का प्रयास करें, तो उनके प्रतिकार हेतु शौर्य, शक्ति, पराक्रम, सजगता एवं संगठन की अनिवार्यता होती है। तपस्या का व्रत लेकर चले भगवान् राम  जिनका लक्ष्य था दुर्दान्त को नष्ट करना हमें इसी की प्रेरणा देते हैं

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥


ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने संपूर्ण संसार को विद्यालय जैसा क्यों कहा

सिक्किम की यात्रा में एक वैद्य का उल्लेख क्यों हुआ

दादागुरु की चर्चा क्यों हुई

समय -सारणी  से भैया विनय वर्मा जी को आचार्य जी ने कैसे संयुत किया

जानने के लिए सुनें

18.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 18 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७३ वां* सार -संक्षेप

 कथा कविता कहानी भावनाओं की निशानी है ,

कि भारत में सभी किरदार राजा और रानी हैं ।

सभी दुख-दर्द के मारे बेचारे जूझते उठते, 

मगर संघर्ष में टूटे नहीं सब स्वाभिमानी हैं ॥


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 18 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७३ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५५


जब हम अपने भारतवर्ष के साहित्य को सरल रूप में अपनी सन्ततियों को समझाएँगे, तो वे अपनी परम्परा और आत्मस्वरूप से परिचित होकर आत्मबोध प्राप्त करेंगे। इससे वे न भ्रमित होंगे, न भयभीत और न ही जीवन में भटकेंगे


भारतवर्ष का साहित्य अत्यन्त प्राचीन, गहन, व्यापक और जीवनदर्शी है। इसकी जड़ें हजारों वर्षों पुरानी हैं और यह न केवल धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टि से, बल्कि दर्शन, विज्ञान, नीति, कला और जीवनशैली के स्तर पर भी अत्यन्त समृद्ध है।


श्री रामचरितमानस भारतीय साहित्य में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट स्थान रखता है।यह ग्रंथ अवधी भाषा में लिखा गया, जिससे यह आम जनमानस तक पहुँचा।  मानस ने पूरे देश में भक्ति और धर्म की भावना को सहज रूप से पहुँचाया।


मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।

ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास॥91 क॥


अरबों पवन के समान भगवान् राम में महान् बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चंद्रमाओं के समान वे शीतल और संसार के समस्त भयों का नाश करने वाले हैं॥ऐसे हैं भगवान् राम


बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥90 क॥


बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते  नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥90 (क)॥


जब हम अपने भारतवर्ष के साहित्य ग्रंथों पर गहरा विश्वास रखते हुए उसे सरल भाषा में अपनी सन्ततियों को समझाएंगे, तब वे उस महान् परम्परा से परिचित हो सकेंगे जिसने भारत को कभी विश्वगुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित किया था।  


ऐसा करने से हमारी भावी पीढ़ियाँ न केवल अपनी सांस्कृतिक जड़ों को समझ सकेंगी, बल्कि आत्मबोध से युक्त होकर जीवन में स्पष्टता और आत्मविश्वास प्राप्त करेंगी।  

तब वे न तो भयभीत होंगी, न भ्रमित और न ही मार्ग से भटकेंगी। वे दृढ़ता, विवेक और सुस्पष्ट दिशा के साथ अपने जीवन को आगे बढ़ा सकेंगी।


क्योंकि यह संसार सभी मनुष्यों के लिए एक परीक्षा-भूमि के समान है, जहाँ अनेक कष्ट और कठिन समस्याएँ सामने आती हैं। ये समस्याएँ इतनी जटिल होती हैं कि सामान्य बुद्धि भ्रमित हो जाती है और व्यक्ति विचलित होने लगता है।  


किन्तु  आत्मबल और विवेक से युक्त होकर हमारी संततियां इन कठिन प्रश्नों को सहजता से हल कर पाएंगी


सांसारिक प्रेम का एक अत्यन्त विशिष्ट उदाहरण कौन सा है, पाटी पूजन की चर्चा क्यों हुई,संगठन में आत्मस्थता क्यों आवश्यक है, भैया पंकज जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

17.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 17 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७२ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 17 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७२ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५४

कथा कहानियों के माध्यम से अपनी सन्ततियों को भारतीय संस्कृति सनातन धर्म के वैशिष्ट्य से परिचित कराएं ताकि वे स्वाश्रयी

, आत्मविश्वासी, तत्त्चदर्शी बन सकें



तार्किक व्यक्ति, अर्थात् जो केवल बुद्धि और तर्क के आधार पर जीवन का मूल्यांकन करते हैं, वे प्रायः संसार की सीमा से ऊपर नहीं उठ पाते। उनका चिंतन सीमित होता है, क्योंकि वे प्रत्येक बात को केवल तर्क की कसौटी पर कसते हैं और अनुभूति, आस्था या भावना के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाते। इस कारण वे जीवन के उस गूढ़ पक्ष से वंचित रह जाते हैं जो तर्क से परे है।


इसके विपरीत, भावनाशील या भाववादी व्यक्ति, जो हृदय के स्तर पर अनुभव करते हैं, वे संसार की सीमाओं को लांघ जाते हैं। उनका जीवन केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि आत्मिक होता है। वे जीवन को अनुभव करते हैं, उसमें रमते हैं, और उसकी गहराइयों तक पहुँचते हैं। 


ऐसे भावनाशील व्यक्तियों का जीवन विशेष प्रकार का होता है। वे बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपने अन्तःकरण की शांति और आस्था से आनंद प्राप्त करते हैं। इसलिए वे जीवन में स्थायी आनन्द की अनुभूति करते हुए सहज, सरल और दिव्य मार्ग पर अग्रसर होते हैं।


इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से हम इसी प्रकार के सदाचारमय विचार ग्रहण करते हैं सदाचार का अर्थ है सत् का आचरण 

सत् क्या है?

 तत् सत्  वही सत् है 

वही अर्थात् जो इसे रचता है हम भी उसी की रचना हैं

हमें उस स्रष्टा के प्रति पूर्ण आस्था रखनी चाहिए किसी प्रकार का इसमें भ्रम नहीं होना चाहिए कागभुशुण्डि के भ्रम को दूर करते हुए भगवान् कहते हैं 


भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥

जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥4॥


भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग- इन सबके भेद को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा॥4॥


अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥

निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥


अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह 'निज सिद्धांत' सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥1॥


मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥

सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥



यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है।यहां अनेक प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। किंतु मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥2॥


और जब भगवान् के हम सबसे प्रिय हैं तो हमें किसी प्रकार का भय और भ्रम नहीं होना चाहिए हम अपने शरीर को स्वस्थ रखने की चेष्टा करें मनुष्यत्व की अनुभूति करते हुए कुटुम्ब की ओर उन्मुखता करें यही बिन्दुत्व से सिन्धुत्व का परिवर्तन है


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मदालसा, रन्तिदेव और मोरध्वज का उल्लेख क्यों किया जानने के लिए सुनें

16.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 16 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७१ वां* सार -संक्षेप

 अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 16 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७१ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५३


हम अपनी सन्ततियों को स्वावलम्बी,आत्मविश्वासी, पुरुषार्थी,पराक्रमी  बनाने का प्रयास करें उन्हें सनातन धर्म की विशेषताओं से परिचित कराएं,उनके भय और भ्रम को दूर करें


आचार्य जी इन सदाचार-वेलाओं के माध्यम से दीर्घकाल से हमें मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं। 

यह हमारा सौभाग्य है कि हमें उनके विचार, अनुभव और सत्प्रेरणा का लाभ निरंतर प्राप्त हो रहा है।हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष 

जीवन कितना दीर्घ है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है; वह कितना प्रकाशपूर्ण, सार्थक और प्रेरणादायक है, यही वास्तविक महत्त्व रखता है।  


हमारे भीतर विविध प्रकार की शक्तियाँ और दुर्बलताएँ स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती हैं। जीवन का उद्देश्य होना चाहिए कि हम अपनी आन्तरिक शक्तियों को पहचानें, उनका विकास करें और दुर्बलताओं पर नियंत्रण प्राप्त करें। 


इन शक्तियों को जाग्रत करने तथा परखने के लिए आवश्यक होता है कि हम जीवन में कुछ नियम और संयम स्थापित करें। जब हम इनका पालन श्रद्धा और भक्ति के साथ करते हैं, तो हमारे भीतर स्थित शक्तियाँ क्रमशः प्रकट होने लगती हैं, और उनका प्रभाव हमारे आचरण, सोच और कर्म में स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है  


जब इस प्रकार की उच्च भावनाएँ और विचार हमारे अंतर्मन में विकसित होंगे, हमारा चरित्र तेजस्वी एवं विशिष्ट रूप में प्रकट होगा, तब हम अपनी सन्ततियों को भी आत्मविश्वासी, पुरुषार्थी, श्रद्धावान्, पराक्रमी और देशभक्त बना सकेंगे।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया वीरेन्द्र त्रिपाठी जी का उल्लेख क्यों किया Noida की एक बैठक की चर्चा क्यों की, अधिकार-यात्रा से क्या आशय है, किसी सेठ हंसराज सावला की चर्चा किस कारण हुई जानने के लिए सुनें

15.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 15 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५७० वां* सार -संक्षेप

 तीन दिवस तक पंथ मांगते

रघुपति सिन्धु किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे।


उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से।


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 15 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५७० वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५२


जिस भावी पीढ़ी के लिए जीवन का प्रमुख लक्ष्य केवल उच्च वेतन (पैकेज) प्राप्त करना बन गया है, उसकी दुविधाओं को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। यह तभी संभव है जब हम उन्हें सही दिशा, जीवन के उच्च आदर्श, कर्तव्यबोध और आत्मबोध से परिचित कराएँ।




हमें अपने तेजस्वी एवं गौरवशाली अतीत पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। हमारा इतिहास केवल पराधीनता की कथा नहीं है, बल्कि वह संघर्ष, आत्मबल और सतत प्रयास का प्रतीक है।

हमारा मूल उद्देश्य यह होना चाहिए कि समाज में जो असहाय, निराश्रित और उपेक्षित हैं, उनका हाथ थामें। यह केवल दया का कार्य नहीं, अपितु हमारी संस्कृति और धर्म की मूल भावना है 

हमारा धर्म वह है जो सबके प्रति आत्मीयता से भरा हुआ है यह धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, अपितु जीवनदृष्टि है जिसमें देशभक्ति, अध्यात्म, शौर्य और शक्ति का समन्वय  है।


हमें चाहिए कि हम अपनी परम्पराओं और अपने वास्तविक इतिहास को जानें, उसका आदर करें और उसमें विश्वास रखें। यह चिन्तन पक्ष हो। उसी के साथ कर्मपक्ष में भी हमें सक्रिय रहना चाहिए  समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करने का सतत भाव रखना चाहिए।


अपने मन में भ्रम उपजाने वाली दोषी शिक्षा -विधि को संशोधित करने की आवश्यकता है


इसके लिए चिन्तन, मनन, आत्मशक्ति का संवर्धन और संगठित प्रयास अत्यावश्यक हैं। संगठन ही शक्ति है, और वही समाज को स्थायित्व और उन्नति प्रदान करता है।

हमें अत्यन्त निकृष्ट, संकीर्ण और आत्मकेंद्रित स्वार्थ से दूर रहना चाहिए

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पंकज जी का उल्लेख क्यों किया, बिहार चुनाव के विषय में क्या कहा जानने के लिए सुनें

14.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 14 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६९ वां* सार -संक्षेप

 जलते जीवन के प्रकाश में अपना जीवन तिमिर हटायें

उस दधीची की तपः ज्योति से एक एक कर दीप जलाएं


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 14 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६९ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५१


आत्मीयता केवल एक भाव नहीं, बल्कि भारतीय जीवनदृष्टि का मूल आधार है, जो समाज और संगठन दोनों को स्थायित्व और सामर्थ्य प्रदान करता है।अतः अपने संगठन युगभारती में प्रेम और आत्मीयता के विस्तार का यथासंभव प्रयास करें l



आत्मीयता जीवन का मूल तत्त्व है, यह भारत की आत्मा, उसका प्राण है। भारतीय संस्कृति में संबंधों की गहराई, सहजता और भावनात्मक निकटता को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। जब हम अत्यधिक औपचारिक होने लगते हैं, तो अनजाने में ही लोगों से दूरी बनाने लगते हैं। औपचारिकता सम्बन्धों में कृत्रिमता लाती है, जबकि आत्मीयता संबंधों को जीवंत और सार्थक बनाती है।


विदेशों में निवास करने वाले भारतीयों को यह बात विशेष रूप से खलती है कि वहाँ के सामाजिक वातावरण में आत्मीयता का अभाव रहता है। यथार्थ में, वही क्षण उन्हें भारत की स्मृति से जोड़ते हैं, जहाँ संबंध केवल औपचारिकता पर आधारित नहीं होते, बल्कि भाव और अपनत्व से जुड़े होते हैं।


संगठन के सन्दर्भ में भी यह सत्य है कि अत्यधिक औपचारिकता संगठनात्मक जीवन के लिए बाधक बनती है। संगठन तभी सशक्त और जीवंत रहता है, जब उसमें आत्मीयता, सहयोग और पारस्परिक समझ का भाव हो। हमारे जीवन-संस्कार हमें यही सिखाते हैं कि हम संबंधों को केवल नियमों और मर्यादाओं से न बांधें, बल्कि आत्मीयता और विश्वास से पोषित करें।


१ अक्टूबर १९१८ को जन्मे श्री भिड़े जी की चर्चा आचार्य जी ने क्यों की,उड़ीसा का प्रसंग आचार्य जी ने क्यों बताया,भैया यशवन्त राव देशमुख जी का उल्लेख क्यों हुआ,संगठन में समरस होने के लिए क्या करना चाहिए जानने के लिए सुनें

13.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 13 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६८ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 13 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६८ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५०

हनुमान् जी के दर्शन करें  दर्शन के साथ उनके कार्यों का ध्यान करें तो शक्ति ज्ञान भक्ति विश्वास प्राप्त होगा



जब हम अपनी स्मृतियों में लौटते हैं और स्वयं को उस विशाल कक्ष में उपस्थित मानते हैं, तो यह अनुभूति जाग्रत होती है कि वहीं हमें समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी जाती थी। वह स्थान केवल एक भौतिक कक्ष नहीं था, अपितु एक चेतना-स्थली था, जहाँ कर्तव्य, सेवा और आत्मबल की भावना उत्पन्न होती थी।


और यह सब कुछ घटित होता था  हनुमान जी की साक्षात् उपस्थिति में जिनकी वह मूर्ति  नहीं, बल्कि उनका सजीव प्रेरक स्वरूप हमारे सामने होता था। वे केवल भक्ति के प्रतीक नहीं, अपितु बल, विवेक, विनय और कर्म के भी प्रतीक हैं जिनका स्मरण और आराधन जीवन को शक्ति, श्रद्धा और निर्भयता से भर देता है।


यदि हनुमान जी को हम शुद्ध भाव से, श्रद्धा और निष्कपटता से भजें, तो उनका कृपा-संवेदन अवश्य प्राप्त होता है और आन्तरिक बल मिलता है


हमारे भीतर गोस्वामी तुलसीदास, छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे महापुरुषों की चेतना विराजमान् है। इसका तात्पर्य यह है कि जो गुण, संकल्प, साहस, भक्ति और राष्ट्रनिष्ठा इन विभूतियों में विद्यमान थी, वही बीजों के रूप में हमारे भीतर भी निहित हैं। हमारे अंतर्मन में ज्ञान, विज्ञान, पौरुष, शक्ति और भक्ति — सबका अद्भुत सामंजस्य विद्यमान है।


यद्यपि इन महापुरुषों के तत्त्व को पूर्णतः जान पाना सहज नहीं है, किन्तु हमें उन्हें केवल बौद्धिक स्तर पर जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अपितु उनके आदर्शों और चेतना की अनुभूति अपने जीवन में करनी चाहिए। यदि हम ऐसा कर पाते हैं, तो यह न केवल आत्मकल्याण का मार्ग होगा, अपितु समाज और राष्ट्र के लिए भी प्रेरणादायी होगा।

इसके बाद हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उस अनुभव, उस तत्त्व, उस शक्ति और उस विश्वास का प्रसार करें। केवल अपनी कमाई, सुविधा और व्यक्तिगत लाभ में ही जीवन को खपा देना  समय का अपव्यय है। जीवन को सार्थक वही बनाता है जो अपनी शक्तियों का उपयोग समाज, संस्कृति और राष्ट्र की सेवा में करता है।


'गायत्री मन्त्रार्थ ' पुस्तक की चर्चा करते हुए आचार्य जी ने बताया कि गायत्री प्राणों की प्रेरणा है प्राण को परिपोषित संपोषित शक्तिमान् बनाने का आधार है गायत्री

जो प्राणों की रक्षा करे वो गायत्री है


बूजी प्रार्थना के लिए कौन सा स्थान चाहती थीं जम्मू के एक विद्यालय का उल्लेख क्यों हुआ भैया मुकेश जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें

12.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 12 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६७ वां* सार -संक्षेप

 जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के ll


 राम के गुण-समूह जगत् का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं।


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 12 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६७ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४९

 अपने ग्रंथों  जैसे श्रीरामचरित मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि की दिव्य शिक्षाएँ हमारे मन में  उस आत्मविश्वास का संचार करती हैं, जिससे हम अपने कर्तव्यों को निर्भयतापूर्वक निभा सकें।अतः हमें इनका अध्ययन अवश्य करना चाहिए l



आचार्य जी आज भी हमारे लिए पूर्णतः प्रासंगिक हैं, क्योंकि उनका व्यक्तित्व और विचार हमें केवल मार्गदर्शन ही नहीं देते, बल्कि हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास का संचार करते हैं। वे जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और विवेक बनाए रखने की प्रेरणा देते हैं।  


उनकी वाणी और शिक्षाएँ हमें संकटों से पलायन नहीं, अपितु उनका डटकर सामना करने की युक्तियाँ प्रदान करती हैं। वे यह बोध कराते हैं कि प्रत्येक चुनौती आत्मविकास का अवसर है। अतः आचार्य जी केवल एक युगपुरुष नहीं, अपितु आज भी हमारे जीवन में प्रेरणास्रोत के रूप में सक्रिय हैं। हमें ऐसे सहयोग का सुयोग प्राप्त है हमें इसका लाभ उठाना चाहिए l तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में


हम समाज के एक महत्त्वपूर्ण घटक हैं, यह बोध हमें अवश्य होना चाहिए। यदि हम पराश्रयता से बचना चाहते हैं, तो आत्मदीप्ति अत्यन्त आवश्यक है।हमें सदैव इस बात का प्रयास करना चाहिए कि हमारा मनोबल क्षीण न हो, क्योंकि यही मनोबल हमें कठिन परिस्थितियों में स्थिर बनाए रखता है। यह मनोबल अकेले नहीं बनता, अपितु साथियों और सहयोगियों से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता है।यह कथन अत्यन्त सारगर्भित है — "सङ्घे शक्तिः कलौ युगे"

 संगठित प्रयास, सामूहिक चेतना और पारस्परिक सहयोग ही समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। संगठन  जिसका आधार प्रेम आत्मीयता और विश्वास है इसलिए आवश्यक है क्योंकि हमारे देश पर इस समय संकट है हमें आसपास घटित हो रही गतिविधियों पर भी ध्यान रखना चाहिए 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने फरीदाबाद की चर्चा क्यों की,मन की भूख से क्या होता है, संगठन के लिए क्या क्या आवश्यक है जानने के लिए सुनें

11.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 11 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६६ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 11 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६६ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४८

आपस में हम एक दूसरे से संपर्कित रहने के अधिक से अधिक प्रयास करें


जन्म से ही हम हिन्दूजन सहिष्णुता, श्रद्धा एवं प्रेम के भाव से युक्त होते हैं। यही गुण हमारे सांस्कृतिक वैभव की विशेषता तो हैं, परन्तु इसी कारण हम छल, कपट और शत्रुता के शिकार भी अनेक बार बनते हैं। दुष्टों की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही है सन्मार्ग पर चलने वालों को हानि पहुँचाना और धर्ममार्ग में विघ्न उत्पन्न करना। अतः हम सनातन धर्म के अनुयायियों को, जो कहते हैं

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।,

 चाहिए कि ऐसे कुटिल प्रवृत्तियों से युक्त व्यक्तियों के प्रति सदैव सावधान एवं सजग रहें। ये रक्तबीज 

(रक्तबीज असुरों में एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसे वरदान प्राप्त था कि उसके शरीर से गिरे प्रत्येक रक्तकण से एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाएगा।देवी काली ने अपना विशाल रूप धारण कर उसका रक्त गिरने से पहले ही पी लिया और उसकी उत्पन्न होने वाली प्रत्येक प्रति को नष्ट कर दिया। अंततः रक्तबीज का संपूर्ण विनाश हुआ।)


सदृश प्रवृत्तियाँ, जो एक के नष्ट होने पर अनेक रूपों में उत्पन्न होती हैं, समाज में अराजकता, भ्रम एवं अधर्म का विस्तार करती हैं। इन्हें पहचानने, निरस्त करने एवं उनके प्रभाव से समाज की रक्षा हेतु सुसंगठित, जागरूक एवं सशक्त सामाजिक संरचना की परम आवश्यकता होती है।

इसीलिये संगठन का महत्त्व अत्यन्त उच्च हो जाता है। संगठन केवल जनसमूह का एकत्रीकरण नहीं, यह शक्ति ही कालान्तर में धर्मरक्षक बनकर समाज को पुनः तेजस्विता प्रदान कर सकती है। समाज को जागरूक कर सकती है l युगभारती का यही रूप है l हमारा लक्ष्य ही है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष


 संगठन का मूल आधार प्रेम और विश्वास है l इसके लिए आचार्य जी ने कुछ सूत्र बताए जैसे व्यक्तिगत रूप से हम अपने बीच के कुछ परिवारों से संयुत रहें,संपर्क के साधनों के आधार पर संपर्क साधें आदि तो इनसे संगठन शक्तिशाली बनेगा इनका सातत्य संगठन को आदर्श संगठन के रूप में स्थापित करेगा


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पुनीत जी की चर्चा क्यों की  शिक्षा की क्या भूमिका है आदि जानने के लिए सुनें

10.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 10 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६५ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 10 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६५ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४७

प्रतिदिन समीक्षा करते हुए हम दैनन्दिनी लिखें


यह संसार विविध घटनाओं का एक समुच्चय है। जो व्यक्ति इन घटनाओं के अंतरंग रहस्यों को जानकर उनके मूल तत्त्व को समझ लेते हैं, वे संसार की गूढ़ता में प्रवेश करते हैं और उसी अनुपात में पूज्य एवं महनीय बन जाते हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने अपने भाव, विचार एवं क्रिया से एक तपस्वी का जीवन जिया। उनका जीवन सरल था, किंतु उसमें गहराई थी — वे सहज थे, परंतु उनका व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली और प्रेरणादायक था।


पंडित दीनदयाल जी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या से आहत होकर बूजी ने उनके स्मरण और उनके आदर्शों की चेतना को जीवित रखने हेतु पं. दीनदयाल विद्यालय की स्थापना का संकल्प लिया। यह विद्यालय मात्र एक औपचारिक शिक्षण संस्था नहीं है, बल्कि इसका निर्माण एक पवित्र उद्देश्य की पूर्ति हेतु हुआ — वह उद्देश्य था पं. दीनदयाल जी के जीवन-मूल्यों, विचारों और एकात्म मानववाद के आदर्शों का पल्लवन और प्रसार।

 यह विद्यालय एक वैचारिक केंद्र है, जो चरित्र निर्माण, राष्ट्रसेवा और समाजोन्मुखी जीवन मूल्यों की शिक्षा देने हेतु समर्पित है।

ऐसे विद्यालय के हम पूर्व छात्रों को अपना उद्देश्य विस्मृत नहीं करना चाहिए 

हमारा उद्देश्य है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष

ऐसे व्यक्तित्व के लिए चिन्तन, मनन, अध्ययन, स्वाध्याय,निदिध्यासन, ध्यान, व्यायाम, लेखन अत्यन्त आवश्यक है

यदि हम अपने ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो कभी व्याकुल नहीं होंगे 

श्रीरामचरित मानस जिसे वाङ्मय अवतार कहना अतिशयोक्ति नहीं है एक ऐसा ही ग्रंथ है जिसे तुलसीदास जी ने अकबर के शासन में विद्यमान विषम परिस्थितियों में प्रस्तुत किया तुलसीदास जी ने भक्ति में शक्ति का प्रवेश अनिवार्य माना


तुलसीदास जी की रामकथा हमें यह बोध कराती है कि अध्यात्म कोई पलायन नहीं है,जीवन की चुनौतियों का समत्वभाव से सामना करते हुए, धर्म के मार्ग पर अडिग रहना ही सच्चा अध्यात्म है शौर्य से अनुप्राणित अध्यात्म ही समाज और राष्ट्र के लिए अनिवार्य है।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया जहां मस्तिष्क प्रधान हो जाता है मन संकुचित होने लगता है वहां व्यक्ति का व्यक्तिव कुंठित होने लगता है व्यक्ति व्याकुल रहने लगता है 

पारायण विधि की चर्चा क्यों हुई आचार्य जे पी जी के पौत्र का उल्लेख क्यों हुआ भावनाओं से हम दूर कैसे हो जाते हैं जानने के लिए सुनें

9.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६४ वां* सार -संक्षेप

 सांगठनिक रूप से भगवान् राम के अवतरण की अनुभूति की जाए और कुछ लोग संकल्पित हो जाएं तो......


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 9 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६४ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४६

हम आचार्य जी के लिए रत्न स्वरूप हैं, अतः यह आवश्यक है कि हमारी प्रतिभा और क्षमता निष्फल न हो, अपितु सार्थक दिशा में प्रयुक्त हो



 आचार्य जी का यह स्पष्ट संदेश है कि हम अपने कर्तव्यों की गहन अनुभूति करें और उन्हें पूर्ण निष्ठा से निभाएँ।


("तू भारत का गौरव है¸

तू जननी–सेवा–रत है।

सच कोई मुझसे पूछे

तो तू ही तू भारत है॥46॥)

जन्म और मृत्यु इस संसार का अपरिहार्य सत्य है। किंतु जब हम अपने आत्मतत्त्व की अनुभूति कर लेते हैं, तब यह बोध होता है कि हम केवल इस नश्वर शरीर तक सीमित नहीं हैं। हम उस चैतन्य के अंश हैं जो जन्म और मृत्यु से परे है — जो नित्य, शाश्वत और अविनाशी है।

ऐसी अनुभूति होने पर जीवन के परिवर्तनशील पक्ष हमें विचलित नहीं करते। हम सुख-दुःख, हानि-लाभ, जन्म-मरण जैसी घटनाओं को समत्वभाव से देख पाते हैं। आत्मतत्त्व की यह चेतना हमें स्थिरता, विवेक और शांति प्रदान करती है।

वर्तमान संसार में निराशा का विस्तार और आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या वास्तव में अत्यन्त चिन्तनीय विषय है। इसका मूल कारण मनुष्य का अपने आत्मिक तत्त्व से विच्छिन्न होना है।

इस संसार में परिस्थितियाँ और समस्याएँ सदा विद्यमान रहती हैं, वे अपने स्वरूप में सत्य हैं। किन्तु इनसे विचलित हुए बिना, स्थिर चित्त और दृढ़ संकल्प के साथ हमें अपने लक्षित पथ की ओर अग्रसर होना चाहिए। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम बाधाओं को पार करते हुए उत्तरदायित्व का निर्वाह करें और अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहें। जिस प्रकार भगवान् राम रहे 


सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥

हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥


हे गिरिजा !  सुनिए, वेद-शास्त्रों ने हरि के अनेक सुंदर, विस्तृत  निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता (अनेक कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)।

 हम यह समझें कि संगठन शक्ति है शक्ति में भक्ति होनी चाहिए और जब भक्ति अनुरक्ति में परिवर्तित होती है तो उसके परिणाम विलक्षण होते हैं और यह संभव तब है जब इसमें सातत्य होगा

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया पत्नी वही जो पति को पतन से रोक दे 

भैया पंकज जी की किस पुस्तक का उल्लेख हुआ भैया प्रवीण सारस्वत जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें

8.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 8 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६३ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 8 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६३ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४५

ग्रामों में अनेक प्रतिभाएँ विविध रूपों में बिखरी हुई हैं, उन्हें पहचानना और उभारना हमारा उत्तरदायित्व है।



भारत एक अद्वितीय राष्ट्र है, जिसकी सोच और दृष्टिकोण सम्पूर्ण विश्व को समाविष्ट करने वाली रही है। हमने सम्पूर्ण वसुधा को एक कुटुम्ब के रूप में स्वीकार किया। ऐसी व्यापक, उदात्त और समन्वयकारी दृष्टि विश्व के अन्य किसी भी देश में दुर्लभ है।

हमें यह आत्मबोध होना चाहिए कि हमारी सांस्कृतिक विरासत कितनी विलक्षण, समृद्ध और सार्वभौमिक रही है। भारत ने न केवल आध्यात्मिक ज्ञान, वरन्‌ विज्ञान, गणित, कला, भाषा, संगीत और दर्शन के क्षेत्रों में भी *विश्व को मार्गदर्शन प्रदान किया है*। हमारी सभ्यता केवल एक भू-भाग तक सीमित नहीं रही, अपितु उसकी अमिट छाप विश्व के कोने-कोने में देखी जा सकती है।


भारत की संस्कृति के चिह्न आज भी विभिन्न देशों के स्थापत्य, मूर्तिकला, साहित्य और जीवन मूल्यों में परिलक्षित होते हैं। यह हमारी उस महान् परम्परा का प्रमाण है, जो सहिष्णुता, समन्वय और वैश्विक मैत्री के सिद्धान्तों पर आधारित रही है।हमारा अमरत्व का चिन्तन भी अद्भुत है l 

आचार्य जी हमें प्रेरित करते हैं कि हम अवतारत्व की अनुभूति करें  (शौर्य प्रमंडित अध्यात्म )हम नित्य अध्ययन स्वाध्याय चिन्तन मनन लेखन निदिध्यासन व्यायाम आदि करें  अध्ययन और स्वाध्याय के उपरांत जब यह गहन चिन्तन उत्पन्न होता है कि हम न तो केवल शरीर हैं, न केवल मन और न ही केवल बुद्धि, अपितु इन सभी तत्त्वों का समन्वय हैं, तब एक गम्भीर अनुभूति जन्म लेती है। इसी आध्यात्मिक एवं बौद्धिक अनुभव के आधार पर पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे विचारक "एकात्म मानववाद" की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जो जीव से ब्रह्म तक की यात्रा को समाजोन्मुख दृष्टिकोण के साथ जोड़ती है।


इस दर्शन को आधार बनाकर यदि संगठन की रचना की जाती है, तो उसके परिणाम केवल सामाजिक संरचना तक सीमित नहीं रहते, अपितु अत्यन्त अद्भुत और व्यापक होते हैं। ऐसा संगठन मात्र जनसमूह का एकत्रीकरण या कोई सामाजिक क्लब नहीं होता, बल्कि उसमें निहित शक्ति असीम होती है, जो समाज के गहन रूपान्तरण में सक्षम होती है हमारा संगठन युगभारती एक ऐसा ही संगठन है 

हम अपना उद्देश्य जानें 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने किसी आकाश सिंह  की चर्चा क्यों की 

 और डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर (उपाख्य : हरिभाऊ वाकणकर ; 4 मई 1919 – 3 अप्रैल 1988) जो भारत के एक प्रमुख पुरातत्वविद् थे का उल्लेख क्यों किया जानने के लिए सुनें

7.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६२ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 7 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६२ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४४

समाज के अंदर अपना विश्वास वृद्धिंगत करने का प्रयास करें


हम आचार्य जी की वाणी और विचारों को सुनकर प्रेरणा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यह विचारणीय विषय है कि क्या हमने वास्तव में  कुछ प्राप्त किया है? यह चिन्तन का विषय है कि श्रवण मात्र से जीवन में परिवर्तन सम्भव है या उसे आत्मसात् कर कर्मरूप में परिणत करना आवश्यक है।उत्तर है कर्मरूप में परिणति


वर्तमान कालखण्ड में राष्ट्र की परिस्थितियाँ नितान्त विषम एवं जटिल हैं। ऐसे संकटकाल में यदि हम निष्क्रिय रहकर बाह्य-आश्रय की प्रतीक्षा करें, तो वह उचित नहीं कहा जा सकता। हम मनुष्य हैं, अतः हमें अपने भीतर निहित मनुष्यत्व की साक्षात् अनुभूति करनी चाहिए। हमारा देश एक अद्भुत राष्ट्र है जो प्राणिजगत् में मनुष्य को उसके वास्तविक मनुष्यत्व का बोध कराता है।

मनुष्य में सुप्त मानवोचित गुणों को जाग्रत करने हेतु काल-कालान्तर में ऐसे महामानवों का अवतरण होता रहा है, जो समस्त लौकिक लाभ, लोभ तथा स्वार्थ से रहित होकर समाज को आध्यात्मिक उन्नयन की दिशा प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ भगवान् राम जिन्होंने विभिन्न स्थानों पर जाकर जनसमूह का संगठन किया और  रावण जैसे आततायी का वध किया, जिसने समाज में भय फैलाया था। संगठन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है  संगठन और एकत्रीकरण में अन्तर है

संगठन में परिश्रम समर्पण त्याग लगता है

दैन्य में भी उत्साह रहे यही संगठन का प्राण है सिद्धान्त है

हम अपने संगठन का उद्देश्य ध्यान में रखें हमें राष्ट्र को वैभवशाली बनाना है अखंड भारत का स्वरूप हमारा लक्ष्य है जो व्यक्ति हमारी सेवा से लाभान्वित हो रहा है वह हमारे साथ खड़ा हो इसका प्रयास करें हमारे ऊपर विश्वास करे ऐसी प्राणिक ऊर्जा समाज को देने के लिए हमको उससे संपर्क रखना होगा 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बैच प्रमुख के उत्तरदायित्व बताए, भैया पंकज जी, भैया पुनीत जी का उल्लेख क्यों किया, संगठन को सशक्त बनाने के लिए बैठक कब होगी जानने के लिए सुनें

6.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 6 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६१ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 6 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६१ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४३


भावी पीढ़ी कों बताएं कि हमारा अतीत वीरता और पराक्रम से परिपूर्ण रहा है। उन्हें समझाएं कि हमारे पूर्वजों ने साहस, दृढ़ता और आत्मबल के साथ अनेक कठिन परिस्थितियों का सामना किया और गौरवशाली इतिहास की रचना की।



इस संसार में जहाँ एक ओर विकार हैं, वहीं सार और तत्त्व भी विद्यमान हैं। जो व्यक्ति इन दोनों के बीच सम्यक्‌ संतुलन स्थापित करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते हैं, वे ही वास्तव में योग्य और विचारशील कहलाते हैं।  हमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।  

हमारी संस्था 'युगभारती' की भी यही मूल दृष्टि है। किसी भी संस्था के लिए प्रेम, आत्मीयता और परस्पर विश्वास अत्यन्त आवश्यक तत्त्व हैं। इनका अभाव नहीं होना चाहिए तथा इनके संरक्षण का सदैव प्रयास होना चाहिए।


जैसा हम जानते हैं हमारी संस्था युगभारती के स्वास्थ्य प्रकल्प के अन्तर्गत *स्वस्थ भव- युगभारती स्वास्थ्य परामर्श केन्द्र* का आरम्भ होने जा रहा है।  (आगामी शनिवार दिनांक 8 नवम्बर को शाम 5 बजे  *प्रथम स्वास्थ्य परामर्श केन्द्र स्वरुप नगर कानपुर में शुभारम्भ पूजन  है*)

यह प्रकल्प सफल हो ऐसी कामना हम सब करते हैं 

समाज की प्रकृति अत्यन्त विचित्र है। जब कोई व्यक्ति  / प्रकल्प सफल होता है, तो समाज उससे किसी-न-किसी रूप में लाभ उठाना चाहता है; लेकिन जब वही व्यक्ति / प्रकल्प असफल हो जाता है, तो समाज उसे तिरस्कृत करता है, उसे दबाने और उसकी निन्दा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे विस्मयकारी समाज में  सम्मान बनाए रखना एक कठिन कार्य है। इसलिए  विवेकपूर्वक चिन्तन आवश्यक है समाज सेवा करते समय अपने मनोबल को दृढ़ बनाए रखना भी आवश्यक होता है। इसके लिए नियमित रूप से हमें अध्ययन, स्वाध्याय, लेखन तथा व्यायाम आदि का अभ्यास करना चाहिए।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने गांधी जी और नेहरू जी की क्या अच्छाइयां बताईं भैया पुनीत जी भैया मनीष जी भैया वीरेन्द्र जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

5.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 5 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५६० वां* सार -संक्षेप

 नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥

(ऐसे कराल  काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब विभ्रमों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक के माता पिता हैं)


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 5 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५६० वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४२

Society के विकारों से प्रभावित न होकर Society पर अपने सद्विचारों का प्रभाव डालें


युग -भारती के रूप में हम लोगों का संगठित स्वरूप संपूर्ण सनातनधर्मी समाज के लिए आशा की एक सशक्त किरण है। अतः आवश्यक है कि हम स्वयं को श्रेष्ठ बनाएँ। यदि हमारे भीतर सात्विकता का भाव नहीं जागा, हमारे विचारों में गांभीर्य और सत्त्व नहीं आया और तप, त्याग, सेवा, समर्पण की भावना विकसित नहीं हुई—तो हमारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा।


हम यह स्वीकारते हैं कि हमारा व्यक्तित्व समाजोन्मुखी है, अर्थात् हम केवल अपने लिए नहीं, अपितु समाज के लिए जीते हैं। परंतु यह समाजोन्मुखता तभी सार्थक होगी जब वह आचरण और आत्मसंयम से पुष्ट हो। केवल शब्दों से नहीं, अपितु कर्म, भाव और जीवनशैली से हमें यह प्रमाणित करना होगा कि हम समाज के लिए सचमुच उपयोगी हैं और सनातन मूल्यों के संवाहक हैं।


इस प्रकार, हमारी व्यक्तिगत शुद्धता और आत्मिक परिष्कार ही समाज के कल्याण के पथ को प्रशस्त करेगा।इसमें हमें विभ्रमित नहीं रहना चाहिए हमें अपने को पहचानना चाहिए l


अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्....

यदि हम किसी के कहने मात्र से प्रभावित होकर उसके विकारों को अपनाने लगते हैं,यह कहें कि Society में ऐसा चलता है तो यह बुद्धिमत्ता से रहित आचरण है। उचित तो यह है कि हमारा प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़े, जिससे वह अपने दोषों को त्यागकर सद्गुणों के मार्ग पर अग्रसर हो। हमें स्वयं इतना सशक्त और स्थिर बनना चाहिए कि हम दूसरों को श्रेष्ठता की ओर प्रेरित कर सकें, न कि स्वयं उनकी दुर्बलताओं से प्रभावित होकर विचलित हों।


श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।

हम रामत्व की अनुभूति करें भगवान् राम ने प्रेम आत्मीयता का विस्तार किया संगठन किया समाज के भय और भ्रम को दूर किया और एक महाशक्ति को पराभूत कर दिया

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने किसी उमेश जी की चर्चा क्यों की, बैच २००० के रजत जयन्ती कार्यक्रम के लिए क्या परामर्श दिया जानने के लिए सुनें

4.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 4 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५९ वां* सार

 नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥

नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 4 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५९ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४१

ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करें जो प्रेरणादायी हो


जब तक जीव मोह से ग्रस्त है, तब तक वह आत्मस्वरूप की जागृति को प्राप्त नहीं कर सकता। स्वप्नों की भांति संसार की दृश्यमान  वस्तुएँ भी मिथ्या हैं  वे केवल मोहजन्य प्रतीति हैं। अतः भगवत्कृपा या सत्संगादि साधनों द्वारा मोह की रात्रि का विनाश और आत्मबोध का प्रभात आवश्यक है।


जागु, जागु, जीव जड़ ! जोहै जग - जामिनी ।


देह - गेह - नेह जानि जैसे घन - दामिनी ॥१॥


सोवत सपनेहूँ सहै संसृति - संताप रे ।


बूड्यो मृग - बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥२॥


आचार्य जी हमें जागरूक करने का आह्वान करते हैं कि हम  मोह, माया और अज्ञान के आवरण से मुक्त होकर आत्मबोध की दिशा में अग्रसर हों संसारिक आसक्ति में रत मनुष्य चेतना-विहीन होकर विषयों में डूबा रहता है, परंतु वह जान नहीं पाता कि उसकी गति विनाश की ओर है। यह चेतना ही अध्यात्म का प्रथम सोपान है।हमें आत्मबोध होना चाहिए कोई भ्रम नहीं कोई भय नहीं रामाश्रित होने का प्रयास करें

 आत्मा का शुद्ध, निर्विकल्प और सर्वव्यापी स्वरूप अद्भुत है वह निराकार, सर्वत्र व्याप्त, समभावयुक्त है, वह न बंधन में है न मुक्त होने की अपेक्षा रखता है। उसका स्वभाव चैतन्य और आनंदमय है। वही शिव है — पूर्ण, स्वतंत्र और कल्याणकारी चेतना।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया 

नाम के साथ जीवन का तत्त्व संयुत होता है और रूप के साथ जीवन का यथार्थ परिलक्षित होता है

जीजाबाई का उल्लेख क्यों हुआ 

युगभारती के बैच १९७५ का सम्मेलन कब हो किन्हें नित्य कार्य दिये जाएं  अधिवेशन में आनन्द कैसे प्राप्त होगा जानने के लिए सुनें

3.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५८ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 3 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५८ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४०

समाज को स्वस्थ बनाने का प्रयास करते रहें


आचार्य जी नित्य हमें प्रेरित करते हैं यह हमारा सौभाग्य है

आचार्य जी भी हमें समाजोन्मुखी होने के लिए उसी प्रकार प्रेरित करते हैं जिस प्रकार तुलसीदास जी के गुरु ने उन्हें प्रेरित किया और  उस प्रेरणा से उन्होंने समाज को जाग्रत करने का  एक अद्भुत प्रयास कर डाला उस गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं 


बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥



आचार्य जी ने स्पष्ट किया कि अपने विचारों को दूसरों के साथ साझा करना, संवाद स्थापित करना और फिर मिलकर योजना बनाना सामाजिक और आत्मिक उन्नति का मार्ग है। जब व्यक्ति अपने विचारों को सामूहिक हित में प्रस्तुत करता है, तो उसकी दृष्टि व्यापक होती है और वह केवल अपने लिए नहीं, अपितु समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए सोचने लगता है।


इस प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि हम न निराश हों, न हताश, क्योंकि सेवा और सुधार का मार्ग सहज नहीं होता। इसके साथ ही दंभ और अहंकार का निरसन भी अनिवार्य है, क्योंकि आत्मप्रशंसा सेवा की आत्मा को नष्ट कर देती है।


 निष्काम भाव से सेवा में लगना ही वास्तविक कर्तव्य है। यह सेवा तब और प्रभावी होती है जब हम सज्जनों की संगति में रहें  क्योंकि सत्संग से ही विवेक और प्रेरणा प्राप्त होती है। राजनीति के पंक में फँसने से उद्देश्य भटक सकता है, इसलिए आवश्यक है कि सेवा कार्य राजनीति से प्रेरित न होकर धार्मिक और आध्यात्मिक प्रेरणा से संचालित हो।


समूह में बैठकर चर्चा करना और प्रश्न पूछना  यह एक श्रेष्ठ साधन है आत्मविकास और सामाजिक दिशा प्राप्त करने का। जितना अधिक हम प्रश्न करेंगे, उतना ही हम सीखेंगे और जानेंगे।


अंततः यह स्मरण रहे कि हमारा कार्य सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर उपयोगी हो, किन्तु उसकी जड़ें अध्यात्म में गहराई तक जुड़ी हों। तभी सेवा कार्य स्थायी, पवित्र और प्रभावी बन सकता है।



इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने कल संपन्न हुए शिविर के विषय में क्या बताया आचार्य जी का  मृत धन से क्या आशय है  जानने के लिए सुनें

2.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी /द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 2 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५७ वां* सार -संक्षेप

 धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥

नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥4॥



प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष एकादशी /द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 2 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५७ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ३९

निः स्वार्थ भाव से सेवा करें


तुलसीदास जी भारतीय समाज का नेतृत्व करने वाले ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने भारतीय चिंतन और दर्शन को न केवल आत्मसात् किया, अपितु उसे अपने जीवन और साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित भी किया। वे केवल एक कवि नहीं, बल्कि एक समाजचिन्तक भी हैं, जिन्होंने अकबर के शासन से उत्पन्न  विकृतियों, संघर्षों और भ्रमों का समाधान अध्यात्म के माध्यम से प्रस्तुत किया।

उनकी वाणी में केवल भक्ति नहीं, बल्कि नीति, समाज सुधार और धर्म का समन्वय भी है। इसलिए वे केवल एक रचनाकार नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज के जीवनमूल्यों और संस्कृति के संवाहक एवं मार्गदर्शक चिन्तक हैं। उत्तरकांड में कलियुग का वर्णन करते हुए वे कहते हैं 

कलियुग में धर्म के वास्तविक स्वरूप से विमुख होकर व्यक्ति केवल बाहरी पहचान और दिखावे में लगे रहेंगे। जो सच्चे भक्त होंगे, उन्हें उपेक्षित किया जाएगा। तुलसीदासजी इस प्रकार सामाजिक, धार्मिक और नैतिक पतन की ओर संकेत करते हैं


सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।

मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101 क॥


हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ, दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए


प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।

जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103 ख॥


धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं,सत्य सतयुग में दया त्रेता में तप द्वापर में और कलियुग में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी  दिया जाए वह दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥


दान में मोह मद आदि विकार नहीं होने चाहिए दान के कारण यशस्विता अर्जित नहीं करनी चाहिए ऐसा दान अन्यथा दिखावा हो जाता है दान के कई प्रकार हैं विद्या,सेवा, धन आदि 

जिसको देने के पश्चात् कोई इच्छा न हो 


आज हम स्वास्थ्य शिविर में सेवा का दान करने आ रहे हैं इस सेवा में अपने मन से विकारों को हटा दें

निःस्वार्थ भाव से सेवा करें 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया 

संसार का प्रत्येक व्यक्ति यशस्वी होना चाहता है अध्यात्म में प्रवेश करें तो प्रशंसा की चाह उस परमेश्वर की इच्छा का वह तत्त्व है जिसके कारण वह सृष्टि की संरचना करता है

भैया आलोक वाजपेयी जी भैया अनुराग वाजपेयी जी भैया प्रवीण भागवत जी भैया विवेक भागवत जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

1.11.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष दशमी / एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 1 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५६ वां* सार -संक्षेप

 तप-तपस्या के सहारे

इन्द्र बनना तो सरल है।

स्वर्ग का ऐश्वर्य पाकर

मद भुलाना ही कठिन है ॥४॥


प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष दशमी / एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 1 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५६ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ३८


इन विचारों को सुनकर अपने जीवन को गढ़ने का उद्देश्य बनाएं 



अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।

राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥


पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहों।


 विनय- पत्रिका के इस पद में तुलसीदास जी अपने पूर्व जीवन की अज्ञानता और वर्तमान की जागरूकता का वर्णन करते हैं।वे कहते हैं कि अब तक वे संसार के भ्रम में डूबे थे, पर अब वह नहीं डूबेंगे। भगवान राम की कृपा से यह संसार रूपी अज्ञान की रात्रि समाप्त हो गई है और अब वे जाग गये हैं

उन्हें श्रीराम का नाम मिल गया है, जो एक सुंदर और मनोवांछित फल देने वाली रत्नस्वरूप वस्तु है। अब यह नाम उनके हृदय से कभी नहीं हटेगा।


नाम लेना  जैसे "राम" का नाम जपना, अपने आप में विशेष नहीं है। विशेषता तब है जब हम उस नाम के भीतर छिपे रहस्य और भाव को समझें। जब उस नाम के स्मरण से हमारे भीतर वह अनुभूति जाग्रत हो जाए, जो हमें आलोकित कर दे, तब ही उस नाम का जप सार्थक होता है। यदि हम  भगवान् राम  का नाम लें, तो उनके जीवन-आदर्शों त्याग, मर्यादा, कर्तव्य और शौर्य को भी अपने जीवन में उतारें — यही वास्तविक मानवता है। केवल जीने, खाने और सोने तक सीमित जीवन जीवत्व है, उससे ऊपर उठकर, उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना ही मनुष्यत्व है।

आचार्य जी का नित्य प्रयास रहता है कि हमें आत्मबोध हो 

आत्म और परमात्म के सहयोग की अनुभूति शक्ति भक्ति विचार विश्वास है l

तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ,

तू है महासागर अगम मैं एक धारा क्षुद्र हूँ ।

तू है महानद तुल्य तो मैं एक बूँद समान हूँ,

तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ ।


हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक रुकना नहीं है राष्ट्र को वैभवशाली बनाना हमारा लक्ष्य है अखंड भारत हमारा दृष्टिगुण है l प्रेम और आत्मीयता का विस्तार करना ही हम युग भारती के सदस्यों का उद्देश्य है l शिक्षा स्वास्थ्य स्वावलम्बन सुरक्षा हमारे आयाम हैं l 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पंकज जी भैया मलय जी भैया अक्षय जी भैया वीरेन्द्र जी के नाम क्यों लिए,  स्वर्णनगरी में सीतारामी धारण करने का क्या आशय है जानने के लिए सुनें