सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 30 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५८५ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ६७
शिक्षा विषय को लेकर छोटी छोटी बैठकें करके चर्चा करें
हम ईश्वर की ओर से इस संसार रूपी नाट्य-मञ्च पर भेजे गए एक कर्मयोद्धा हैं। हमारा जन्म मनुष्य के रूप में हुआ है और मनुष्य होना केवल एक जीव नहीं, बल्कि एक उत्तरदायित्व है क्योंकि मनुष्य कर्मयोनि है।
इस जीवन का उद्देश्य केवल भोग या विश्राम नहीं, बल्कि सत्कर्म के माध्यम से अपने मनुष्यत्व की अनुभूति करना है। हमें अपने व्यक्तित्व को उन्नत बनाना है, उसका उत्कर्ष करना है परन्तु यह उत्कर्ष केवल आत्मकेंद्रित न होकर समाजोन्मुखी होना चाहिए। क्योंकि समाज ही वह आधार है जिसने हमें संस्कृति, संस्कार और सभ्यता दी है अतः यह हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम भी उस समाज के प्रति उत्तरदायी बनें। अपने कर्म, व्यवहार, ज्ञान और सेवा के माध्यम से समाज के विकास में सहभागी बनें
हमारा एक कर्तव्य है कि हम अपनी उस विलक्षण शिक्षा पद्धति को जानें जिसके आधार पर हम विश्व गुरु बने और उस शिक्षा से भावी पीढ़ी को भी परिचित कराएं
आज समाज में बढ़ते हुए पारिवारिक विघटन, जैसे तलाक की बढ़ती घटनाएँ, केवल सामाजिक या आर्थिक कारणों से नहीं हो रही हैं, बल्कि इसका मूल कारण है व्यक्ति का अपने स्व को न पहचान पाना। जब कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, अपने भावों, अपने कर्तव्यों और जीवन-मूल्यों को नहीं समझता, तब उसके भीतर अस्थिरता, असंतुलन और भ्रम उत्पन्न होते हैं। इसका कारण हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति भी है। शिक्षा में न तो जीवन के उच्च आदर्शों की स्थापना हो रही है, न ही शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच आत्मीय संवाद बन पा रहा है। शिक्षक स्वयं भ्रम और संदेह की स्थिति में पढ़ाता है, और विद्यार्थी भी संशय और भय के साथ सीखता है। ऐसी शिक्षा आत्मविश्वास नहीं देती, केवल सूचनाएँ देती है, जिससे जीवन का संतुलन नहीं बन पाता।
इसलिए आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा की, जो आत्मबोध उत्पन्न करे, विश्वास का संचार करे और मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराए। यही संतुलित और सुदृढ़ समाज की आधारशिला होगी।
तुलसीदास जी ने मानस में ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए जिनमें समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उभार झलकता है जैसे सती अनसूया द्वारा मां सीता को पतिव्रता के लक्षण बताना आदि
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नाना जी की जर्मनी यात्रा की चर्चा क्यों की जर्मनी में राष्ट्र -धर्म के संस्कार किस प्रकार दिए जाते हैं व्यापार में धर्म की दृष्टि क्यों आवश्यक है जानने के लिए सुनें