30.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 30 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३२ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  30 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३२ वां सार -संक्षेप



प्रचंड शक्ति से प्रहार सत्य का प्रचार हो,

अखंड राष्ट्रभक्ति युक्ति बुद्धि से विचार हो,

न हार का न वार का प्यार का विकार हो,

असीम भीमशक्ति शौर्य वृत्ति का उभार हो ।


अखंड हिंदुराष्ट्र का सुचित्र चित्त धार लो,

समग्र हिंदु जाति पंथ ग्रंथ को दुलार लो,

हिमाद्रि बिंध्य सिंधु हिंदुभूमि को निहार लो,

निजी चरित्र शौर्य शक्ति भक्ति से निखार लो ।


कि संघबद्धता बढ़े सुकीर्ति शीर्ष पर चढ़े,

निजात्महीनता कढ़े सुशक्ति बुद्धि पर मढ़े,

समग्र हिंदु बंधु बीच प्रेम-भावना बढ़े,

विरोध द्रोह मोह कोह व्यक्ति व्यक्ति से कढ़े।


स्वयं पुरुषार्थ और पराक्रम का वरण करते हुए और भौतिकता के साथ शौर्यप्रमंडित अध्यात्म की ओर उन्मुखता बनाए रखते हुए भावी पीढ़ी को पुरुषार्थ पराक्रम से युक्त करना  और उसे यह बताना कि मात्र भौतिक ज्ञान प्राप्त कर अर्थसंचय का उपकरण बनना उचित नहीं है हम युगभारती के सदस्यों का कर्तव्य है

हम जो भी कार्य करें उसे ईश्वरार्पित करें इससे हमारे भीतर दंभ नहीं आएगा क्योंकि जो कुछ भी संसार में हो रहा है वह ईश्वरीय व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है  

हम इस पर भी ध्यान दें कि हम युगभारती के कितने सदस्यों के परिवार टूट रहे हैं ऐसे परिवार टूटने न पाएं इसका अभियान चलाने की आवश्यकता है

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया डा अमित जी भैया डा उमेश्वर जी भैया डा प्रदीप त्रिपाठी जी भैया डा पङ्कज जी भैया दिनेश प्रताप जी भैया संतोष मल्ल जी का नाम क्यों लिया भैया विजय गर्ग जी के पास कौन पहुंचा १२ जुलाई  तक का क्या लक्ष्य है जानने के लिए सुनें

29.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 29 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३१ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  29 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३१ वां सार -संक्षेप

मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह अपने भीतर किसी श्रेष्ठ लक्ष्य का संकल्प करे और फिर उसे सिद्धि तक पहुँचाने के लिए समर्पण, अनुशासन और निरंतर अभ्यास के साथ कार्यरत रहे। लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए जब हम बाधाओं से टकराते हैं, तब हमारे धैर्य, साहस और विवेक की परीक्षा होती है। यही संघर्ष का सौंदर्य है — जहाँ हर बाधा, हर विपरीत परिस्थिति हमें और अधिक सक्षम बनाती है।संसार में रहकर भी जो व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति सजग और जागरूक रहता है, वही सच्चे अर्थों में आनन्द की अनुभूति करता है।

संसार की समस्याओं के सामने हमारे मन में निराशा और अशक्तता का भाव न आए यदि यह अकेले संभव न हो तो किसी और का भी साथ लें

सङ्घे शक्तिः कलौ युगे

अर्जुन के भीतर लक्ष्य के प्रति दृढ़ता,साधना और दक्षता तो थी ही वह संसार के महानतम धनुर्धरों में से एक था। किंतु युद्धभूमि में जब अपने ही संबंधी, गुरु और बंधु-बांधव सामने खड़े दिखाई दिए, तो उसका मन संशय और मोह से आच्छादित हो गया।भगवान् श्रीकृष्ण ने विवेक, धर्म और कर्तव्यबोध के माध्यम से उसका संशय दूर किया l लक्ष्य चाहे कितना भी स्पष्ट हो, यदि मन में संशय है तो कर्म रुक जाता है। जब संशय मिटता है, तभी आत्मा स्थिर होता है, और वही क्षण है जब कर्म योग में परिणत होता है। अर्जुन का रूपांतरण इस बात का प्रतीक है कि स्पष्ट लक्ष्य, गुरु का मार्गदर्शन और मन की निर्मलता — इन तीनों से ही सच्चा कर्म संभव है।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।


स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।


अर्जुन बोले -- हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देह भ्रम भय कुशंका रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपके आदेश का पालन करूँगा।

ऐसा अद्भुत है गीता ज्ञान 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।


तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।



जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।

जहां इस प्रकार का गुरुत्व और शिष्यत्व होता है वह राष्ट्र कभी पराजित नहीं हो सकता कुछ समय के लिए व्याकुल हो सकता है

कभी विलीन नहीं हो सकता अतः निराशा का भाव कभी न लाएं 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने किसे जुनूनी कहा भैया मोहन जी का उल्लेख क्यों किया श्री मां का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें

28.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 28 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३० वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  28 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३० वां सार -संक्षेप

आचार्यजी नित्य प्रयास करते हैं कि हम लोक दृष्टि के साथ दिव्य दृष्टि की गहनता को समझें

दिव्य दृष्टि है

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो


मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।


वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो


वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15.15।।

भगवान् कृष्ण कहते हैं

मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य वस्तु हूँ तथा वेदान्त का, वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।


रावण की भोगदृष्टि अर्थात् लोक दृष्टि और उसकी सत्ता की रक्षा के लिए ऋषियों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन अनेक ग्रंथों में विस्तार से मिलता है। रावण जानता था कि यदि ऋषि यज्ञ, तप, ध्यान, धारणा और साधना में लीन रहेंगे, तो वे ऐसी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर सकते हैं जो उसकी राक्षसी सत्ता के लिए हानिकारक हो सकती है।रावण के हस्तक जैसे खर, दूषण, त्रिशिरा आदि ऋषियों के आश्रमों पर आक्रमण करते थे, उन्हें यज्ञ करने से रोकते थे और उनका वध करते थे। ऋषियों ने श्रीराम से प्रार्थना की:


एहि पश्य शरीराणि मुनीनां भावितात्मनाम्।  हतानां राक्षसैः घोरैः बहूनां बहुधा वने॥ 

वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड

यह स्पष्ट करता है कि रावण की नीति थी कि ऋषियों को भयभीत कर उनके तप, ध्यान और यज्ञ को बाधित किया जाए, जिससे वे आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त न कर सकें

रावण की दृष्टि भोगप्रधान थी। उसका उद्देश्य था कि संसार में केवल उसकी सत्ता और भोग की संस्कृति बनी रहे। वह नहीं चाहता था कि कोई भी व्यक्ति तप, ध्यान या यज्ञ के माध्यम से आत्मिक उन्नति करे। इसलिए वह ऋषियों के आश्रमों को नष्ट करता, यज्ञों को विध्वंस करता और तपस्वियों को मारता था।

रावण की भोगदृष्टि और ऋषियों पर अत्याचार उसके पतन का कारण बने। उसने जो भय और आतंक का वातावरण बनाया, वह अंततः धर्म और सत्य के समक्ष टिक नहीं सका। श्रीराम ने रावण के इस अधर्म का अंत कर धर्म की पुनः स्थापना की।

आइये प्रवेश करें अरण्य कांड में 

भगवान् राम सिद्धि के बिना वापस नहीं लौटना चाहते थे यद्यपि भरत जी महाराज तो प्रयास कर ही रहे थे वह परमात्म शक्ति तो एक सिद्धि के लिए आई थी 

यदा यदा हि धर्मस्य.....

मां अनुसूया से मां सीता को दिव्य वसन प्राप्त हो गए हैं भगवान् राम शरभंग के आश्रम में पहुंचते हैं 

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥4॥


शरभंग कहते हैं मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है इस प्रकार (दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर) चिता रचकर मुनि शरभंगजी हृदय से सब आसक्ति छोड़कर उस पर जा बैठे शरभंग ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और राम की कृपा से वे बैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था।

पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥

अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥



इसे देखकर रामत्व बोलता है 

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥

ऐसी अद्भुत है राम कथा 

यही हमारे जीवन से संयुत है हम इसकी अनुभूति करें राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में अपने कर्तव्य को जानें भ्रमित न हों 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने १०० के लक्ष्य के बारे में क्या बताया  श्री कृष्णगोपाल जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें

27.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 27 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२९ वां सार -संक्षेप

 जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥

प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  27 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२९ वां सार -संक्षेप

डॉ. हेडगेवार का उद्देश्य था कि संघ एक संगठन मात्र न रहकर, एक जीवनशैली, एक संस्कारधारा बन जाए, जो समाज के हर स्तर पर परिलक्षित हो  बिना किसी अलग पहचान के।  संघ स्वयं को कोई आंदोलन नहीं मानता, अपितु राष्ट्र जीवन के पुनरुत्थान का एक माध्यम मानता है।डॉ. हेडगेवार ने कहा था: संघ को इतना व्याप्त करो कि वह अलग से दिखाई न दे, लेकिन उसके संस्कार पूरे समाज में दिखें।संघ की कार्यशैली मौन, अनुशासित और गृहकार्य के समान है जहां स्वयंसेवक समाज के भीतर रहकर समाज को ही सजग और संगठित करते हैं।

 हिन्दू राष्ट्र का अर्थ संघ के अनुसार कोई राजनीतिक राज्य नहीं,यह राष्ट्र सभी के लिए समान है, लेकिन इसका मूल आत्मा सनातन हिन्दू संस्कृति है।संघ का उद्देश्य ही है कि समाज में यह भाव जागे कि उसका हर व्यक्ति यह सोचे कि वे सब हिन्दू राष्ट्र के अंगभूत नागरिक हैं

हिन्दुत्व ही सनातनत्व है और वही संपूर्ण विश्व की प्राणरक्षा का संकल्प है

इसी भाव और विचार के साथ असंख्य कार्यकर्ता समाजहित राष्ट्रहित में जुटे रहे हैं

ऐसा अद्भुत है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसके पूर्णकालिक कार्यकर्ता प्रचारक कहे जाते हैं जो अपनी क्षमताओं में विशेष होते हैं उनका दायित्व बढ़ता जाता है

ऐसे ही एक विशिष्ट क्षमतासंपन्न पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं श्री कृष्णगोपाल जी जो इस समय संघ के सह सरकार्यवाह हैं कल प्रान्त प्रचारक कौशल जी के साथ सरौंहां आए जहां उनका भव्य स्वागत हुआ उसके पश्चात् एक बैठक हुई जिसमें उनके विचार सुने गए बैठक में आचार्य जी, भैया वीरेन्द्र त्रिपाठी जी भैया मलय जी भैया प्रवीण सारस्वत जी भैया आलोक जी भैया प्रदीप जी भैया अरविन्द जी भैया नरेन्द्र शुक्ल जी सपत्नीक भैया संपूर्ण सिंह जी  श्री हरमेश जी भैया मुकेश जी  उपस्थित रहे

कृष्णगोपाल जी युगभारती से प्रभावित हुए 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि भगवान् की कृपा के बिना हम एक कण एक क्षण आगे नहीं बढ़ सकते 


निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥

राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3॥


हे पक्षीराज गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी की कृपा बिना श्री रामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती ॥3॥

इसके विस्तार में आचार्य जी ने और क्या बताया  १३ जुलाई को क्या है जानने के लिए सुनें

26.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 26 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२८ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  26 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२८ वां सार -संक्षेप


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  ने अपने स्थापना काल से ही राष्ट्र निर्माण को एक सकारात्मक, अनुशासित और अहिंसक प्रक्रिया के रूप में देखा है। संघ का दृष्टिकोण रहा है कि देश की प्रगति और समस्याओं का समाधान संगठन, सेवा और आत्मबल के माध्यम से किया जाए, न कि तोड़फोड़ या अराजकता फैलाकर।

२५ जून १९७५ को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया और संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बावजूद, संघ ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक संगठित और अहिंसक आंदोलन में भाग लिया। संघ के स्वयंसेवकों ने भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन किया, जिसमें लगभग डेढ़ लाख स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी दी। संघ ने इस संघर्ष को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 'लोक संघर्ष समिति' के माध्यम से चलाया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संघ ने देश की बिगड़ी हालत को सुधारने के लिए संगठन और सेवा का मार्ग अपनाया, न कि अराजकता का 

संघ ने सदैव संविधान और लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा को प्राथमिकता दी है।

आपातकाल में ही अपने विद्यालय का हाई स्कूल का  प्रशंसनीय परिणाम निकला जिसमें भैया शशि शर्मा जी की प्रदेश में नवीं पोजीशन आई 

आचार्य जी आपातकाल में समाचारपत्र निकालते थे नाम था जनता समाचार जिसके ब्लाक आनन्द आचार्य जी बनाते थे भैया दुर्गेश रस्तोगी जी उसे फेयर करते थे और प्रकाशन करते थे शिवदयाल जी 

बाद में आपातकाल पर १७ व्यक्तियों ने पुस्तकें लिखीं जिसमें एक लेखक आचार्य जी थे 

पुस्तक का नाम था मुक्ति -यज्ञ

इसके बाद एक और पुस्तक आचार्य जी ने लिखी 

युग-पुरुष 

आपातकाल में MISA कानून भी आया 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन ने अपनी शक्ति दिखा दी ऐसी अद्भुत है संगठन की शक्ति 

इसी संगठन के हम घटक हैं इसी संगठन पर विचार करने के लिए आज सरौंहां में एक कार्यक्रम होने जा रहा है

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने ज्ञानेन्द्र आचार्य जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें

25.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 25 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२७ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  25 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२७ वां सार -संक्षेप


यद्यपि हमारा ऋषि एकान्त में स्थित होकर विचार, चिन्तन, मनन करता है, तथापि उसकी दृष्टि केवल आत्मकल्याण तक सीमित नहीं होती वह भविष्यद्रष्टा होता है। उसे अपने परिवेश का भान रहता है और उसका परिवेश है — भारत।


आज भी हम आश्वस्त हैं कि सुदूर हिमालय की कन्दराओं में ऋषि-मण्डल तप, ध्यान, धारणा और संकल्प में प्रवृत्त है और वही दिव्य चिन्तन भारत की सुरक्षा का मौन आधार है। हम ऐसा विश्वास तो करते हैं किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम कर्महीन होकर बैठ जाएं 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

संसार जिसमें आनन्द और व्यथा दोनों है में सामञ्जस्य बैठाना,संसार के साथ चलना और संसार को समझना मनुष्य के ही वश का है हम मनुष्य हैं किन्तु हमें मनुष्यत्व की अनुभूति होनी चाहिए

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

हमारा राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में जो कर्तव्य है उसकी अनुभूति करें

आचार्य जी हमें लेखन के लिए प्रेरित करते रहते हैं हमारे अन्दर जो भाव हैं उन्हें हम बाहर निकालें और उन्हें अक्षरों में बांधें निश्चित रूप से हमें शक्ति की अनुभूति होगी

आचार्य जी के निम्नांकित भाव देखकर हम प्रेरणा ले सकते हैं


क्यों आज आदि कवि के मन पर रह रह तमसा-तट उभर रहा

क्यों पुनः क्रौंची के नयनों का नीर हृदय में उतर रहा

 क्यों आज अकारण दीप-ज्योति यह मचल मचल कर जलती है ।

क्यों मन्त्र टूटते-जुड़ते हैं जपमाला रुक-रुक चलती है

क्यों आज अवघपति के सिंहासन पर बरबस खिंच रहा ध्यान ॥ ९ ॥

भारत महान् भारत महान् ....

हो समाधिस्थ ऋषि ने देखा हो गयी अयोध्या फिर विरूप

अब राम नाम भर बचा तिरोहित होता जाता है स्वरूप

पगचाप सुनाई देते हैं पर नहीं शिंजिनी के स्वर हैं

श्री सीताराम नहीं अब केवल राम राम अखिलेश्वर हैं

हे आदिशक्ति हे परमेश्वर हे जग रचना के रूप - नाम ॥ १० ॥

भारत महान् भारत महान्...

इसके अतिरिक्त कल कौन सा कार्यक्रम है 

धूपड़ जी ने जाला देखकर क्या कहा ?जानने के लिए सुनें

24.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 24 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२६ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  24 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२६ वां सार -संक्षेप

ऋषित्व अद्भुत है यह वह स्थिति या भाव है जिसमें कोई व्यक्ति सत्य का अन्वेषक होता है, आत्मानुभूति से यथार्थ को जानता है,  तप, ज्ञान, ध्यान और दिव्य दृष्टि से युक्त होता है और लोककल्याण के लिए उस सत्य का संप्रेषण करता है

ऋषित्व केवल ब्राह्मणत्व या तप नहीं,  

बल्कि आत्मसाक्षात्कार और विश्व के कल्याण हेतु उसकी अभिव्यक्ति है।  जो सत्य को देखे और कहे — वही ऋषि, वही ऋषित्व।

इस ऋषित्व का जो कण, अणु, परमाणु हमारे भीतर सुप्त अवस्था में है उसे इन सदाचार संप्रेषणों के माध्यम से आचार्य जी जाग्रत करने का नित्य प्रयास करते हैं

ताकि हम भोगों में लिप्त न हों, कंचनी मृग माया हट सके, हम संयमित साधना के महत्त्व को जानें, अपने लक्ष्य राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष के प्रति हम समर्पित रहें


जनक और दशरथ अत्यन्त प्रभावशाली राजा थे एक विरक्त भाव से एक आत्मस्थ भाव से अर्थात् एकांगी अध्यात्म की अनुभूति 

आसपास क्या हो रहा है उससे सम्बन्ध न रखना यज्ञ हों न हों 

उस समय परिस्थितियां अत्यन्त विषम दिख रही थीं विश्रवा वंश के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे ऐसे समय में भगवान् राम का अवतार होता है 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।


अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।


धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।


इस विषम समय में भारत में रघुकुल भूषण श्री राम जगे 


(और रावण का अन्त होता है)

आ सिन्धु हिमालय फहराया अंबर पर केसरिया निशान ll 

भारत महान् भारत महान्...


भारत महान् भारत महान्... की शेष कौन सी पंक्तियां आचार्य जी ने पढ़ीं,आचार्य जी ने आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक वयं रक्षामः की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें

23.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 23 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२५ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  23 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२५ वां सार -संक्षेप



आचार्य जी का सतत प्रयास रहता है कि इन सदाचार संप्रेषणों के माध्यम से दिए गए सूक्ष्म संकेत हमारे भीतर धर्म, परम्परा एवं संस्कृति के प्रति उत्कंठा और आत्मबोध को जाग्रत करें।  


वे चाहते हैं कि हम अपने ग्रंथों का अध्ययन करें, अपने साहित्यिक वैभव को पहचानें, जिसे युगों तक असाधारण मेधा, तप और साधना से सृजित किया गया है।  


दुर्भाग्यवश, आधुनिक प्रवाह में हमने उस अमूल्य धरोहर की उपेक्षा की है।  

अब समय है कि हम पुनः उस ज्ञान-संस्कृति की ओर उन्मुख हों,  

जिसने भारत को विचार, संवेदना और चरित्र की दृष्टि से जगद्गुरु बनाया।


अब हम अपनी अमूल्य धरोहर की  उपेक्षा नहीं करेंगे आज और अभी यह संकल्प लें


हम सब वैष्णव हैं हमारे भीतर सर्जन और विसर्जन का अद्भुत ज्ञान है हमारा परमात्मा की बनाई गई सृष्टि के प्रति अनुराग है परमात्मा कण कण मे विद्यमान है वैष्णवों का इस प्रकार का चिन्तन है

किसी भक्त ने कहा है 


वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च ।

पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ॥

मैं भगवान् के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ । वे कल्पवृक्ष के समान सारे सात्विक व्यक्तियों  की इच्छाएँ पूर्ण करने में समर्थ हैं तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु हैं ।

वैष्णव जन तो तेने कहिये

जे पीड परायी जाणे रे ।

दुष्ट दूसरे की व्यथा को नहीं जानता है  न जानना चाहता है वह अपनी पीड़ा का निवारण दूसरे को दंड देकर करना चाहता है

वैष्णव दूसरे की व्यथा जानने का प्रयास करता है और उसका निवारण करता है

विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं

विष्णुः (विष् + नुक् ) की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है 


यस्माद्विश्वमिदं सर्वं तस्य शक्त्या महात्मनः । तस्मादेवोच्यते विष्णुर्विशधातोः प्रवेशनात् ll



इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मुरारी बापू, बाबा रामदेव,रूप मंडन, पाकिस्तान की चर्चा क्यों की विष्णु के आचार्य जी ने कौन से अर्थ सहित नाम बताए,भैया गोपाल जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

22.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण एकादशी/द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२४ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण एकादशी/द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  22 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२४ वां सार -संक्षेप


यह सदाचार-संप्रेषण हमारे भीतर स्थित भावतत्त्व की सुप्त चेतना को जाग्रत करने का उपाय है। साथ ही, यह संसार में लिप्तता को न्यून करने का उपचार भी है।  


जब हमारे भीतर भाव की सात्त्विक जागृति होती है, तब जीवन में एक अद्भुत पूर्णता प्रकट होती है।  

वास्तव में, यही भक्ति का आधार है l

भावना नहीं है तो भक्ति नहीं है

भावना के कारण भक्त को अपने इष्ट प्रिय लगते हैं जब कि सांसारिक मनुष्य अपनी वासनाओं और लोभ के पीछे मोहग्रस्त होकर पड़ा रहता है

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130 ख॥



प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥

मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥


सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परन्तु पिछली बात नहीं रहती (अर्थात्‌ मातृ परायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिंता नहीं करती, क्योंकि वह माता पर निर्भर न कर अपनी रक्षा अपने आप करने लगता है)। ज्ञानी मेरे प्रौढ़ (सयाने) पुत्र के समान है और (तुम्हारे जैसा) अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है॥4॥



भक्त शिशु की तरह होता है जैसे शिशु के लिए मां वैसे ही भक्त के लिए अपने इष्ट

वेद तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस्) से युक्त विषयों को बताते हैं


ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥


 किन्तु भक्त का स्वभाव है कि वह त्रिगुणातीत रहे  कुछ भक्त ऐसे होते हैं जिनमें यह भाव स्थायी रूप से टिक जाता है जैसे कबीर तुलसीदास वाल्मीकि महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज

हम इसी भाव को कुछ क्षणों के लिए अनुभव करके आनन्द प्राप्त कर सकते हैं बस हमें नाट्यमंच पर उस रूप को धारण करना है वीर, लेखक, कवि,शिक्षक, समाजसेवी आदि का रूप

इसके अतिरिक्त आचर्य जी ने क्रोध और मन्यु में अन्तर बताया

और  त्रिविष्णु के बारे में बताया जिनके लिए कहा जाता है कि वे सृष्टि, पालन और संहार की लीला में अलग-अलग स्तरों पर कार्य करते हैं। ये हैं:


1. कर्णोदकशायी विष्णु  अर्थात् महाविष्णु

- यह भगवान विष्णु का सबसे व्यापक रूप है।  

- ब्रह्माण्डों की सृष्टि से पूर्व यह कारण सागर (कर्णोदक) में शेषनाग पर शयन करते हैं।  

- उनके निःश्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न होते हैं।  

- इन्हीं के शरीर से अनंत ब्रह्माण्ड निकलते हैं — सृष्टि का कारण।


2. गर्भोदकशायी विष्णु 

- यह प्रत्येक ब्रह्माण्ड के भीतर गर्भोदक (ब्रह्माण्डीय जल) में स्थित रहते हैं।  

- इसी रूप से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है — नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट होते हैं।  

- ये विष्णु ब्रह्माण्ड के संचालन में संलग्न रहते हैं।


3. क्षीरोदकशायी विष्णु  

- ये क्षीरसागर (क्षीरोद) में शयन करते हैं।  

- यही भगवान विष्णु क्षीरसागर में देवताओं के आह्वान पर प्रकट होते हैं l  

- इन्हीं से दशावतार (राम, कृष्ण, नरसिंह आदि) अवतरित होते हैं।  

- ये सबके हृदय में परमात्मा के रूप में अंतःस्थ भी रहते हैं — अन्तर्यामी

आचार्य जी ने भैया मोहन जी, भैया राघवेन्द्र जी का नाम क्यों लिया, स्त्री क्या है जानने के लिए सुनें

21.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

 करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  21 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२३ वां सार -संक्षेप

 हम संसार से मुक्त होकर आत्मस्थ होने की  यदि चेष्टा करें तो हमें लाभ मिलेगा

 हम अध्ययन स्वाध्याय चिन्तन मनन लेखन कुछ भी करें उसमें कितना हम रम रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण है किसी भी कार्य को यदि हम भक्तिभावपूर्वक करें, तो उसमें हमें केवल कर्तव्य नहीं, अपितु आनंद की अनुभूति भी होगी।  भक्ति से किया गया कार्य साधारण नहीं रहता — वह साधना बन जाता है। उसमें न थकान रहती है, न ऊब, केवल समर्पण, प्रसन्नता और शांति का अनुभव होता है।  

नाम जप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥

राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥


तुलसीदास जी भगवान् राम के विभिन्न नामों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक नाम अपने आप में अद्वितीय और महत्त्वपूर्ण है, लेकिन "राम" नाम उन सभी में सबसे ऊपर है,यह नाम पापों का नाश करने वाला है, जैसे पक्षियों के झुंड के लिए शिकारी l

 यह चौपाई भगवान् के नाम की महिमा और कलयुग में नाम जप के महत्व को दर्शाती है l

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥

सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥3॥


भगवान् राम हमारे इष्ट इसलिए हैं क्योंकि वे मर्यादा, धर्म, करुणा और आदर्श का मूर्त रूप हैं। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादा का पालन किया कठिन परिस्थितियों में भी धर्म से विचलित नहीं हुए स्वयं को समाज और लोकमंगल के लिए अर्पित किया।


सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।

जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥ 31॥


हे तात! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा

दशानन कहेगा आपके पुत्र ने मेरा पूरा परिवार नष्ट कर दिया 

यह है रामत्व 

अद्भुत अद्भुत अद्भुत 

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। 

इसी रामत्व की हम अनुभूति करें तो हमारे भीतर का तत्त्व जाग्रत होगा

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नारद का कौन सा प्रसंग बताया (विवाह को रोकना शाप देना जिसके कारण भगवान् राम कष्ट उठा रहे हैं )

भैया रूपेश जी का नाम क्यों लिया,प्रौढ़ भक्त कौन है, कवि त्रिकालदर्शी कैसे होता है जानने के लिए सुनें

20.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 20 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२२ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  20 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२२ वां सार -संक्षेप

कौन रंग देता तितलियों के परों को..

उत्तर है परमात्मा 


जिन क्षणों में यह भाव हमारे भीतर जाग्रत होता है कि परमात्मा ही सब कुछ करता है, वही कर्ता है — वे क्षण अत्यन्त आनन्ददायक होते हैं। उन क्षणों में अहंकार विलीन हो जाता है और भीतर एक अलौकिक दिव्यता का अनुभव होता है।उन क्षणों में हमें यह अनुभव होता है कि आत्म परमात्म से संयुत है

यशस्विता, धन आदि के लिए लोभ करना व्यर्थ है 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।


दैहिक, दैविक और भौतिक तापों में संयम रखना आवश्यक है  यह आत्मनियंत्रण, धैर्य और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रतीक है।


दैहिक ताप — शरीरजनित कष्ट (रोग, पीड़ा)  

दैविक ताप — प्राकृतिक या दैविक आपदाएँ (वर्षा, अग्नि, भूकंप आदि)  

भौतिक ताप — अन्य जीवों या समाज से उत्पन्न क्लेश, हानि


सुख हरषहिं जड़ दु:ख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥

धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥



मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं किन्तु धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए

(कौशल्या/कौसल्या दशरथ को समझा रही हैं )

ये श्रीरामचरित मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि के रचयिताओं के मानस असीमित गहराई वाले हैं दुर्भाग्य से और भ्रमवश हम अपने जीवन से इन ग्रंथों को दूर किए हुए हैं हमें ऐसा नहीं करना चाहिए

ऐसे समय में धन दौलत में बहुत न फंसकर हम समाजोन्मुखता अपनाएं राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में जो हमारे कर्तव्य हैं उनका पालन करें 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया भरत सिंह जी भैया अजय कृष्ण जी का नाम क्यों लिया, कत्थे के व्यापारी और नाई का प्रसंग क्या है जानने के लिए सुनें

19.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 19 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२१ वां सार -संक्षेप

 रणभेरी सुन कह ‘विदा, विदा!

जब सैनिक पुलक रहे होंगे


हाथों में कुंकुम थाल लिए

कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे


कर्तव्य प्रणय की उलझन में

पथ भूल न जाना पथिक कहीं!


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  19 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२१ वां सार -संक्षेप


हमारे भीतर भावों का प्रवेश अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि भाव ही हमारे विचारों को परिष्कृत करते हैं।


सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,

'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,

मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में

भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'


 केवल बौद्धिक विचार मनुष्य को यंत्रवत् बना देते हैं, जबकि भावनाओं से संयुत विचार उसके भीतर सरसता, कोमलता, तेजस्विता, उत्साह और जीवन्तता का संचार करते हैं।  

अतः संसार के विविध प्रपंचों से घिरे रहने पर भी हमें अध्ययन, स्वाध्याय एवं लेखन के लिए समय निकालना चाहिए और देश / समाज से जुड़ी सार्थक चर्चा में अवश्य भाग लेना चाहिए। हम मनुष्यत्व की अनुभूति करें चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् l विफलताओं में अपना लक्ष्य न भूलें अपनी समस्याओं में लक्ष्य की आग न बुझने दें

जब कठिन कर्म पगडंडी पर

राही का मन उन्मुख होगा


जब सपने सब मिट जाएँगे

कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा


तब अपनी प्रथम विफलता में

पथ भूल न जाना पथिक कहीं!

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अजय कृष्ण जी का नाम क्यों लिया हेडगेवार जी का उल्लेख क्यों हुआ, सिपाही की विदाई नामक कविता आचार्य जी ने कब लिखी थी और उस कविता की पंक्तियां क्या हैं सागर को गंगामय बनाने का क्या आशय है जानने के लिए सुनें

18.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 18 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२० वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  18 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२० वां सार -संक्षेप


इन सदाचार-वेलाओं के माध्यम से आचार्यजी प्रतिदिन हमें जागरूक एवं प्रेरित करते हैं 

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥

, ताकि हम चिन्तन, मनन,अध्ययन, स्वाध्याय, निदिध्यासन,लेखन में रत हो सकें, हमारे जीवन में संकल्पबद्धता प्रविष्ट हो सके, संसार की सांसारिकता हमें अधिक प्रभावित न कर सके, हर ओर शान्ति का वातावरण स्थापित हो सके,हमारे भीतर संस्कार सदा जाग्रत अवस्था में बने रहें,हम अपना मनोबल प्रबल रखते हुए परिस्थितियों से बिना विचलित हुए अपने मार्ग पर चलते रहें, समाज संघर्षरत है उसमें हम डटे रहते हुए

भावसंपन्न, शक्तिसम्पन्न बनें

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।

पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो;


हृदय की सब दुर्बलता तजो।

प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो—


सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?

प्रगति के पथ में विचरो उठो;


पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥



हम कलियुग में हैं इसमें नाम जप का अत्यन्त महत्त्व है



ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥

कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥


पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परंतु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पापरूपी समुद्र में मछली बना हुआ है


ऐसे कराल  काल में तो नाम ही  वह कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक के माता-पिता की तरह है


अगली पीढ़ी को हमें क्या संदेश देना है,कथावाचक मुरारीबापू, जया किशोरी आदि का उल्लेख क्यों हुआ, स्वावलम्बन का प्रभाव कैसे  पड़ेगा जानने के लिए सुनें

17.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 17 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१९ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  17 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१९ वां सार -संक्षेप

इन सदाचार-वेलाओं के माध्यम से आचार्यजी प्रतिदिन हमें जागरूक एवं प्रेरित करते हैं, ताकि हम चिन्तन मनन निदिध्यासन आदि में रत हो सकें संकल्पबद्ध हो सकें वह आंतरिक शक्ति प्राप्त कर सकें, जिससे हमारे समाज के सत्पुरुषों में व्याप्त व्याकुलता, भय और भ्रम का शमन किया जा सके।

तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में 

रामचरित मानस एक अद्भुत ग्रंथ है एक प्रसिद्ध रामायणी का कहना है बालकांड का प्रारम्भ अयोध्या कांड का मध्य और उत्तरकांड का अन्त जिसने समझ लिया वह वेदज्ञ हो गया

बालकांड में 


भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥


भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका प्रभु राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेंद्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में अत्यन्त चतुर हैं।

(माघ मास में ज्ञानियों ऋषियों का मेलापक होता है )


भरद्वाज जी ने याज्ञवल्क्य से भगवान् राम के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की थी, और याज्ञवल्क्य ने उन्हें शिव-पार्वती संवाद के माध्यम से रामकथा का रहस्य समझाया।



सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥


शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।

शैव वैष्णव संघर्ष को ध्यान में रखते हुए तुलसीदास यह बात कह रहे हैं ताकि उनके बीच का संघर्ष समाप्त हो जाए 



इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने स्मरण कराया कि अगले अधिवेशन का मूल विषय स्वावलंबन है


भैया शशि शर्मा १९७५ द्वारा कहे गए इस वाक्य का कि आग बुझ नहीं रही है पाइप छोड़ा नहीं जा रहा है क्या प्रसंग है

भानुप्रताप जी की चर्चा क्यों हुई 

उन्नाव विद्यालय का उल्लेख क्यों हुआ भैया अरविन्द जी को क्या अच्छा लगा जानने के लिए सुनें

16.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण पंचमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 16 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१८ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण पंचमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  16 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१८ वां सार -संक्षेप


जब हमारे अंतर्मन के भाव लेखनी के माध्यम से पृष्ठों पर उतरते हैं, तब अपने ही लेखन को देखकर एक अनुपम आत्मसंतोष एवं गहन आनन्द की अनुभूति होती है। यह अनुभव आत्मदर्शन का ही एक रूप है। आत्मदर्शन, अध्यात्म के द्वार खोलता है। हम जितना अधिक अध्यात्म में प्रविष्ट होते हैं, उतना ही हमारा जीवन अधिक सार्थक, शांत और कल्याणकारी बनता है।

किन्तु अध्यात्म शौर्य से प्रमंडित होना चाहिए आज भी इसकी आवश्यकता है

जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥


करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने कल सम्पन्न हुई बैठक की चर्चा की  जिसमें प्रेम आत्मीयता से खिंचकर युगभारती के २१ सदस्य उपस्थित हुए 

 साकल्य की किस कविता का उल्लेख हुआ पुरुषार्थ का प्रतिबिम्ब क्या है

भैया विवेक भागवत भैया शरद भैया प्रतीप दुबे आदि की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें

15.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 15 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१७ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  15 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१७ वां सार -संक्षेप


पं दीनदयाल उपाध्याय के विचारों विश्वासों संकल्पों के अधूरेपन की साधना में रत विश्वासों में जीने वाले हम साधक जाग्रत उत्साहित प्रबोधित हों आचार्य जी नित्य इसी का प्रयास करते हैं साधना वही कर सकता है जो यम और नियम के प्रति आग्रही है 


अष्टाङ्गयोग के पहले अंग के रूप में  जाने जाने वाले यम के पाँच मुख्य नियम होते हैं:

    1. अहिंसा — किसी को हानि न पहुँचाना  

    2. सत्य — सच्चाई का पालन  

    3. अस्तेय — चोरी न करना  

    4. ब्रह्मचर्य — इन्द्रियों पर संयम  

    5. अपरिग्रह — संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग

नियम अर्थात् अष्टांग योग के दूसरे अंग  में पाँच मुख्य नियम बताए गए हैं:


1. शौच — शरीर और मन की शुद्धि  

2. संतोष — संतुष्ट रहने की भावना  

3. तप — साधना, अनुशासन  

4. स्वाध्याय — वेदों और आत्मचिंतन का अध्ययन  

5. ईश्वरप्रणिधान — ईश्वर में समर्पण

ईश्वर में पूर्ण आस्था अत्यन्त आवश्यक है ऋषि वल्लभाचार्य के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्द है सत् चित् आनन्द तीनों समभाव में


1. सत्  — अस्तित्व, जो सदा है, जो नष्ट नहीं होता (शुद्ध अस्तित्व)  

2. चित्  — चैतन्य, ज्ञानस्वरूपता, पूर्ण चेतना  

3. आनन्द — पूर्ण आनन्द, निर्विकल्प सुख, परम संतोष



"सच्चिदानन्द" का अर्थ है —  

"जो सदा रहता है, पूर्ण चेतन है और जिसका स्वरूप परमानन्द है।"

हम जीवात्मा में सत् चित् है लेकिन आनन्द का तिरोभाव है


आज हम लोग सरौंहां में  हिन्दुभाव के कारण एकत्र हो रहे हैं हिन्दुभाव अजर है अमर है और सबके साथ चलने का भाव व्यक्त करता है हम इसी कारण वसुधा को कुटुम्ब मानते हैं इसी के साथ हम शौर्ययुक्त अध्यात्म को मानते हैं


हो एकत्रित किसी बहाने हिन्दुभाव के नाते 

तभी सुरक्षित रह पाएंगे घर के रिश्ते नाते 

हिन्दु हिन्दुस्थान सनातन धर्म न चिन्तन ही है 

इसके लिए शक्ति संवर्धन और संगठन भी है

हम संगठित तभी होंगे जब अपनों को जानेंगे

उनके सुख दुःख लाभ हानि को मन से पहचानेंगे


केवल बातें नहीं करें उतरें नित प्रति अपनों हित 

अपने वे जो भरतभूमि भारत माता से गर्वित


तो चलिए सरौंहां जहां आपका स्वागत है


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बचनेश जी का नाम क्यों लिया भैया पंकज जी, भैया प्रवीण सारस्वत जी भैया अजय शंकर जी भैया तरुण अग्रवाल जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

14.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 14 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१६ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  14 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१६ वां सार -संक्षेप

परमात्मा पर विश्वास करते हुए और यह अनुभव करते हुए कि उसके सजाए रंगमंच में हम एक अभिनेता हैं,

सांसारिक प्रपंचों से होने वाली उलझनों से विमुख होकर शान्त मनोभाव से तटस्थ दृष्टि से संसार को देखने की भावना लेते हुए आइये प्रवेश करें आज की वेला में और सदाचारमय विचार ग्रहण करने के लिए उद्यत हों 


कथा मनुष्य के जीवन का अंश है

हमारे पुराण कथात्मक हैं पद्म पुराण की एक कथा इस प्रकार है


(पद्म पुराण के उत्तर खण्ड, अध्याय २०९ में भगवान् विष्णु और माता लक्ष्मी  के बीच एक गूढ़ वार्तालाप है)


एक बार क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर भगवान् विष्णु विश्राम कर रहे थे। उन्हें इस अवस्था में देखकर देवी लक्ष्मी ने जिज्ञासावश पूछा-


भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत् का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन होकर इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?

इस पर भगवान्  ने उत्तर दिया-

सुमुखि! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ।

वे आगे बताते हैं कि यह  महेश्वर से उत्पन्न माहेश्वर तेज योगियों द्वारा अंतःकरण में अनुभव किया जाता है। मीमांसक विद्वानों द्वारा वेदों के सार के रूप में निश्चित किया जाता है।यह एक अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निरीह और द्वैतरहित है।इस जगत का जीवन उसी के अधीन है।


इस प्रकार, भगवान् विष्णु की यह स्थिति बाह्य दृष्टि से निद्रा जैसी प्रतीत होती है, परंतु वास्तव में वे आत्मसाक्षात्कार की गहन अवस्था में स्थित हैं।

माहेश्वर तेज में बुद्धि विचार राग आदि बहुत कुछ है भगवान् विष्णु आगे कहते हैं इस तेजस्विता को गीता के रूप में संसार के समक्ष मैं प्रस्तुत कर चुका हूं

प्रथम पांच अध्याय मेरे पांच मुख हैं दस अध्याय मेरी भुजाएं हैं

हमारे पुराण  वेद उपनिषद् ब्राह्मण आरण्यक गीता मानस अद्भुत हैं हमारा सनातन धर्म अद्भुत है हम इन्हें गहराई से जानने का प्रयास करें और संस्कारों से युक्त होते हुए विशेष बनने की दिशा में अग्रसर हों 

इस समय भी विशेष लोगों की संसार को आवश्यकता है 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया डा अमित जी का उल्लेख क्यों किया स्वामी रामभद्राचार्य जी का नाम क्यों लिया विमान दुर्घटना और गीता का क्या सम्बन्ध है कल के कार्यक्रम की तैयारी कैसी चल रही है जानने के लिए सुनें

13.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 13 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१५ वां सार -संक्षेप

 मैंने तुमको ही विषय मानकर गीत लिखे

 मनमन्दिर की तुम ही उपासना मूरत थे 

साधना साध्य की तुम ही थे तब एकमेव 

सचमुच  ही अनुपम दिव्य समय की सूरत थे 


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  13 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१५ वां सार -संक्षेप


जब चहुं ओर चरित्र और विश्वास का संकट हो, तब भी अगर हम धैर्य, सकारात्मकता और आत्मबल के साथ मुस्कराते हुए अडिग रहेंगे, तो वही संकट धीरे-धीरे दूर हो जाएंगे

 "स्थितप्रज्ञ" पुरुष की तरह न दुःख में हम विचलित हों और  न सुख में अहंकार करें

और कर्मानुरागी बनते हुए हम प्रयास करें कि हमारा जीवन परिचय ऐसा हो कि लोगों को उससे प्रेरणा मिले

तो हम एक उदाहरण बन जाएंगे संसार को लगेगा कि ऐसे समय में भी इन सामान्य से दिखने वाले लोगों ने ऐसा कर दिया

सेवा में यदि हमें आनन्द मिल रहा है तो शरीर हवन कुंड की समिधा बन जाता है इसलिए सेवा धर्म अपनाएं संघर्ष के क्षेत्र में अपनी भूमिका को जानें क्यों कि हमने भारत को सबसे बड़ी भारती मानते हुए राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में संकल्प लिया है


जीवन-परिचय ऐसा हो जिससे औरों को प्रेरणा मिले

सीखने समझने करने की अभिनव नूतन धारणा खिले

जीवन पढ़ते ही भीतर की बुझती बाती झिलमिला उठे

भावों मे ज्वार विचारों में संकल्प - पुष्प खिलखिला उठें

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पंकज जी भैया मनोज सिंह जी भैया सुनील सिंह जी का नाम क्यों लिया platform पर कौन रहता था जानने के लिए सुनें

12.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 12 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१४ वां सार -संक्षेप

 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।


निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  12 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१४ वां सार -संक्षेप


तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।

स्वर्ग और मोक्ष के सभी सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा

जाए तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते

जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है। सदाचार संप्रेषण रूपी इस सत्संग में हमारे पास  तो १६/१७ मिनट उपलब्ध हैं आइये इनका लाभ उठाएं 



युगभारती संस्था, जो पं दीनदयाल उपाध्याय विद्यालय का इतिहास और भविष्य है,समाज -सेवा का एक संकल्प लेकर चल रही है

हम जो उसके सदस्य हैं साधना में रत हैं ताकि हमारा समाज उत्थित प्रबोधित उत्साहित जाग्रत हो सके  दीनदयाल जी की अधूरी कथा को पूर्ण करने का संकल्प लेकर हम चल रहे हैं साधक के रूप में हम अपने लक्ष्य को लेकर स्पष्ट हैं और हमारा लक्ष्य है 

राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष

साधक कभी स्वर्ग अर्थात् सुखों का आगार नहीं चाहता है 

साधक या तो अपवर्ग अर्थात् "न पवर्गः इति अपवर्गः"

अर्थात् जहाँ पर प वर्ग नहीं है वही अपवर्ग है, हिन्दी वर्णमालान्तर्गत प वर्ग 

प फ ब भ म अक्षर हैं

प - पतन

फ- फलाशा

ब- बंधन

भ - भय

म - मृत्यु


 चाहता है या कर्म का संसार चाहता है

परिस्थितियां जैसी भी हों हमें अपने उद्देश्य पर केन्द्रित रहना चाहिए हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं पालना चाहिए

 व्यामोहित नहीं होना चाहिए जैसे अर्जुन आत्मीय जनों को देखकर व्यामोहित हो गया था भीष्म द्रोणाचार्य आदि युद्ध के लिए सन्नद्ध हैं अर्जुन नहीं 

तब भगवान् कृष्ण कहते हैं 


हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।


तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।


युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे अतः हे अर्जुन! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।


सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।


सुख-दु:ख,  लाभ-हानि,जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ  इस प्रकार तुमको पाप नहीं लगेगा


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया दुर्गेश वाजपेयी जी, भैया प्रदीप जी, भैया शैलेश जी का उल्लेख क्यों किया १५ के कार्यक्रम की क्यों चर्चा की  जानने के लिए सुनें

11.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 11 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१३ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  11 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१३ वां सार -संक्षेप


जब स्वत्व सत्य से आतंकित होता है

आँचल प्रसूत को बोझ मान ढोता है

जब अनुनय की भाषा प्रपंच होती है

परवाह धर्म की जब न रंच होती है

सुख सुविधायें जब परिपाटी हो जातीं

यह दिव्य देह केवल माटी रह जाती ॥२॥


आ गया समय ऐसा ही अब भी जागो

सविता से दीप्त विवेक मुखर हो माँगो


(ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ )

संयम साधना सुकर्म धर्म को जानो

अपनों को अपने से पहले पहचानो

देखो भारत माता आँचल फैलाती

माँगो विवेक की आँख बज्र की छाती ||३||

(अपने दर्द मैं दुलरा रहा हूं १३ वीं कविता के अंश )

हमें यह जो मनुष्य का शरीर मिला है यह केवल मिट्टी नहीं है हमें सुख सुविधाओं की परिपाटी का अनुसरण नहीं करना है यह देह दिव्य है यह अनुभूति करनी है

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥

बड़े भाग्य से परमात्मा के वरदान स्वरुप यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है   सबसे बड़ा साधन यह शरीर साधना का आधार और मोक्ष का द्वार है (साधना साधनों के आश्रित नहीं होती है)। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया


वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा अपना दोष न समझकर काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष मढ़ता है

हमें परमात्मतत्त्व की अनुभूति अवश्य करनी चाहिए वह विभु आत्मा है हम अणु आत्मा हैं 


 तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ। 

तू है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ॥

तत्त्व शक्ति को पहचानने का हौसला रखें  शिवत्व की अनुभूति करें और  अपने भारत देश को एक शक्तिसंपन्न देश बनाने के लिए अपना योगदान दें क्योंकि हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने लिपिड प्रोफाइल वाले लेख की चर्चा की और परामर्श दिया कि अनियमितता से बचें

भैया प्रवीण सारस्वत जी का नाम क्यों लिया अपने दर्द मैं दुलरा रहा हूं की १२वीं और १४ वीं कविताएं कौन सी हैं 

नीरज की चर्चा क्यों हुई 

१५ जून के लिए क्या परामर्श आचार्य जी दे रहे हैं जानने के लिए सुनें

10.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 10 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१२ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  10 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१२ वां सार -संक्षेप

हमारा लक्ष्य है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष


यह लक्ष्य पूर्णतः स्पष्ट, उद्देश्यपूर्ण और राष्ट्रचेतना से ओतप्रोत  है।

इसी लक्ष्य के अनुसार सूर्य के उजास से प्रेरणा लेकर हमें अपने राष्ट्र-भक्तों को संगठित करते हुए विश्वास का सेतु बनाते हुए उनके भय और भ्रम को दूर करना है उन्हें अपने सनातन धर्म,  जो अत्यन्त सामञ्जस्यपूर्ण है,की विशेषताओं से परिचित कराना है शौर्ययुक्त अध्यात्म  ( शक्ति भक्ति साथ साथ )के वैशिष्ट्य को बताना है

यह दृष्टिकोण स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, वीर सावरकर,डा हेडगेवार, मधवराव गोलवलकर जैसे विचारकों की परंपरा से जुड़ता है, जिसमें धर्म केवल निजी साधना नहीं, राष्ट्र के जागरण का आधार है।

उठो जागो जगाओ जो पड़े सोए भ्रमों भय में

जिन्हें विश्वास किञ्चित् भी नहीं है नीति में नय में

स्वयं के आत्मप्रेमी सलिल के छींटे नयन पर दो

कहो हे भरतवंशी! धर्म अपना है जगज्जय में

जगत् को जीतने का अर्थ है कि हमें अनगिनत मानवों के हृदय जीतना है यह संसार का आनन्दमय पक्ष है


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया अपने सूत्रसिद्धान्तों की समीक्षा अवश्य करें 

भैया पंकज जी और पक्षियों की बोली का क्या प्रसंग है भैया ओमप्रकाश जी भैया डा ज्योति जी भैया धैर्य जी का उल्लेख क्यों हुआ आत्मगोपी कब नहीं बनना है रात १०:३० बजे आचार्य जी के घर कौन आया

१५ की बैठक हेतु क्या परामर्श है किन अंकुरों को वृक्ष बनना है

 जानने के लिए सुनें

9.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४११ वां सार -संक्षेप

 क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।


स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।२/६३।।


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  9 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४११ वां सार -संक्षेप


आचार्य जी का प्रयास रहता है कि हम युगभारती के सभी आत्मीय सदस्य  उनके मानसपुत्र इन सदाचार संप्रेषणों को सुनकर इनका लाभ उठाएं और

शक्ति शौर्य चिन्तन मनन से परिपूर्ण होते हुए कर्मानुरागी बनें व्यध्व पर चलने से बचें

मोह, कामना, तृष्णा, क्रोध, लोभ आदि विकारों से बचने का प्रयास करें

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥

तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥4॥


उनमें से भी किस-किस को मोह ने विवेकशून्य नहीं किया? जगत् में ऐसा कौन है जिसे कामना ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको पागल नहीं बनाया? क्रोध ने किसके हृदय में जलन उत्पन्न नहीं की ?॥4॥


ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।

केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ 70 क॥

इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान् और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो

फिर भी हम बेदाग जीवन जीते हुए एक एक कदम आगे बढ़ाएं

विषम परिस्थितियाँ जीवन का हिस्सा हैं इन्हें टालना नहीं, सहन कर आगे बढ़ना ही पुरुषार्थ है। जब तक तन में प्राण हैं, तब तक कर्तव्य-कर्म से विमुख नहीं होना चाहिए। यदि हम कर्म नहीं करेंगे तो शरीर जड़,मन कुंठित और विचार भ्रमित हो जाते हैं। धीरे-धीरे हम स्वयं के ही शत्रु बन जाते हैं और आत्मविनाश की ओर बढ़ते हैं।

विपत्ति में भी निष्क्रियता नहीं, बल्कि परमात्मा के प्रति समर्पित होते हुए सतत् कर्म ही जीवन का रक्षण है।

परमात्मा के समक्ष दैन्यपूर्ण समर्पण जो भक्ति का ही एक भाव है को व्यक्त करते ये उद्गार देखिए 

(संसार रूपी समुद्र में भंवर में फँसी नाव का चित्र अत्यंत मार्मिक है यह जीव की स्थिति का सुंदर प्रतीक है।  आत्मा की परमात्मा के प्रति पुकार में कोई अहं नहीं केवल विनम्र समर्पण है।)


हे जगत्पिता हे जगदीश्वर संसार समन्दर पार करो

है बीच भंवर में फंसी नाव हे उद्धर्ता उद्धार करो 

यह भक्ति भाव से भरी आर्त वाणी की है व्याकुल पुकार 

हे दयाधाम दयनीय भक्त को एक बार फिर लो निहार


इस समय परिस्थितियां अत्यन्त विषम हैं घोर अंधकार छाया हुआ है ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि हम उस अंधकार को दूर करने में अपना योगदान दें और राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में जो कर्तव्य है उसे निभाएं

अंधेरा है मगर दीपक जलाना भी मना क्या 

सवेरा है मगर देखो कि कोहरा है घना क्या

कि अपने कर्म से संसार में चूको न क्षण भर

रहो चौकस कि देखो कहां क्या बिगड़ा कहीं पर  कुछ बना क्या


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया शैलेश जी भैया अंशुल जी भैया मोहन जी भैया मनीष जी भैया प्रदीप जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें

8.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 8 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४१० वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  8 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४१० वां सार -संक्षेप


मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥

चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥2॥


डाह ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिंता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया? जगत् में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?

अर्थात्  डाह, शोक, चिन्ता,माया सभी को प्रभावित करते हैं

किन्तु भक्तिपथ पर चलने वाले धीरे धीरे शोक चिन्ता आदि से अप्रभावित होने लगते हैं

माया और मनोविकार सब पर छाते हैं  किंतु साधना, भक्ति और विवेक से मनुष्य उनसे ऊपर उठ सकता है।

वातावरण पारिवारिक और आनन्दमय रहे यह प्रयास करें आनन्दमय पारिवारिक भाव अनेक व्याधियों का निर्मूलन करता है

यह भारतीय जीवन दर्शन का मूल तत्त्व है जब परिवार में प्रेम, सहयोग और आनन्द होता है, तो वह मन, तन और समाज — तीनों के लिए ओषधि बन जाता है।

मानसिक तनाव, जो अधिकांश रोगों का मूल है, स्नेहपूर्ण पारिवारिक वातावरण से स्वतः कम हो जाता है।

भारतीय जीवन-दर्शन में परिवार केवल सामाजिक इकाई नहीं, बल्कि धार्मिक व सांस्कृतिक साधना का केंद्र है।

वसुधैव कुटुम्बकम् — यही भाव और विस्तार है इस दर्शन का।


हम दूसरे आत्मीय जन में विशेषता देखें और दूसरा हमारे अन्दर विशेषता देखे यही प्रेम का धागा है

यदि विशेषता नहीं देखेंगे तो धागा टूट जाएगा

समय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है हम अपनी भूमिका जानकर समय पर उचित कदम अवश्य उठाएं हम परमात्मा से शक्ति लेकर जीवात्मा बनकर इस संसार का उपयोग उपभोग करने के साथ कल्याण करने के लिए आएं हैं हमारा संपूर्ण राष्ट्र आनन्दमय शक्तिमय संस्कारमय रहे  संगठित होकर यह कल्याण करना है

युग भारती का यही उद्देश्य है

सिंधु का व्यर्थ गर्जन यजन बिन्दु का

सूर्य की साधना या सृजन इन्दु का

सिन्धु में इन्दु की भूमिका भाँप कर

फिर समय को सधे पाँव से नाप कर

सिन्धु से बिन्दु का सूर्य से इन्दु का

मन मिलाते रहो जग जगाते रहो ।।४।।

यह था ५२ वीं कविता (अपने दर्द...) का एक अंश

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने इसी पुस्तक के ५३वीं  कविता के कुछ अंश सुनाए 

किसी भी प्रकार की परिस्थिति से बिना विचलित हुए अपने लक्ष्य का ध्यान रखें आशामय जीवन जीने का प्रयास करें


आचार्य जी ने भैया अरविन्द जी भैया पुनीत जी भैया प्रदीप जी भैया अजय कृष्ण जी भैया पंकज जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें

7.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०९ वां सार -संक्षेप

 आनन्द की प्राप्ति ही सबका उद्देश्य है सुख तो आता है चला जाता है....


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  7 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०९ वां सार -संक्षेप


यह संसार एक विराट् नाट्यमंच है इसमें हम सभी पात्र (characters) हैं।  

हर किसी की अपनी भूमिका (role) है  हमें अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्यपूर्वक कार्य करना चाहिए 

 अपने कर्तव्य (भूमिका) का पालन करना श्रेष्ठ है।हमारे जन्म का कोई कारण अवश्य है जिस प्रकार भगवान् राम के अवतरित होने का एक कारण था


असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।

जग बिस्तारहिं बिसद जस राम

 जन्म कर हेतु॥ 121॥


वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने श्वास रूप वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत् में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। 

क्योंकि


(तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥)

जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥


करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥


हमने अपना लक्ष्य बनाया है 

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः 

तो हमें राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में अपनी भूमिका के अनुसार कार्य करना चाहिए

 हमें जगत् के कल्याण के लिए कार्य करने हैं जो विकार हैं उन्हें दूर करना है 

राष्ट्रभक्त जनों को संगठित करें ऐसे संबन्धों को विस्तार दें क्योंकि इस नाम रूपात्मक जगत् में  संबन्धों का विस्तार ही अपना संसार है  और सबके अलग अलग संसार होते हैं यह मनुष्य जीवन का स्वरूप भी है और स्वभाव भी है

 राष्ट्र -भक्त के रूप में अपने प्रभाव अपनी शक्ति अपने सामर्थ्य अपने आचरण से  मनोयोग पूर्वक एक धमक बनाने का प्रयास करें ताकि दुष्ट दुष्टता न कर सकें 

अपनी परम्परा को भी जानें और नई पीढ़ी को भी इससे अवगत कराएं


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने 

दूत...... "जो आज्ञा ""(कहकर जाता है ) का उल्लेख क्यों किया

कवि प्रख्यात मिश्र के कल सम्पन्न हुए विवाह के विषय में क्या बताया श्री बालेश्वर जी की चर्चा क्यों की  संसार का सबसे बड़ा रोग क्या है   'बीज कभी मरता नहीं है' का क्या आशय हुआ जानने के लिए सुनें

6.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 6 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०८ वां सार -संक्षेप

 बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दु:ख दारुन देहीं॥2॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 6 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०८ वां सार -संक्षेप


परमात्मा द्वारा रचा यह संसार बड़ा  अद्भुत है


जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

जब कि दुनिया बड़ी घालमेल की है उसमें मनुष्य अपना दिमाग लगाता है वह दिमाग जिसमें अनेक विकार आ जाते हैं

मानव मन इस संसार की उलझनों में फँसकर विकारों (काम, क्रोध, लोभ आदि) से भर जाता है। इसलिए विवेक और सत्संग जरूरी हैं  अपनी कला अपनी शक्ति अपने ज्ञान का समाजोन्मुखी दृष्टि से उपयोग करें अपने कर्तव्य की अनुभूति करें अविश्वासी रहते हुए अब भी नहीं चेते तो क्या मिलेगा

 तो विश्वास, विवेक आदि की प्राप्ति के लिए आइये प्रवेश करें आज की वेला में


हम अपने भीतर स्थित ईश्वर की अनुभूति करें  तो हमें लाभ पहुंचेगा  दिन भर के सांसारिक प्रपंचों के बाद शयन से पूर्व चिन्तन करें अपनी समीक्षा करें उसे लिख लें अपने इष्ट का स्मरण करें उसके पश्चात् शयन करें अगले दिन का प्रातःकाल आनन्दमय रहेगा


श्रद्धा और विश्वास संसार का आनन्द पक्ष है

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।


ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।


परमात्मा में, महापुरुषों में,  सनातन धर्म में, अपने देश में और शास्त्रों में प्रत्यक्ष की तरह आदरपूर्वक विश्वास होना 'श्रद्धा' कहलाती है। जब तक परमात्मतत्त्व का अनुभव न हो, तब तक परमात्मा में प्रत्यक्ष से भी बढ़कर विश्वास होना चाहिए, वास्तव में परमात्मा से देश, काल आदि की दूरी नहीं है, केवल मानी हुई दूरी है। दूरी मानने के कारण ही परमात्मा सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी अनुभव में नहीं आ रहे हैं। इसलिए 'परमात्मा अपने में हैं' ऐसा मान लेने का नाम ही श्रद्धा है।

अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है,  संशयी  के लिए न यह लोक है और  न ही परलोक


जिसने योग द्वारा कर्मों का संन्यास किया है,  ज्ञान द्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं,  ऐसे आत्मवान् पुरुष को,  कर्म नहीं बांधते हैं। वे कर्मफल की इच्छा भी  नहीं करते हैं


इसके अतिरिक्त दीप से दीप का जलना क्या है आचार्य जी ने रामाज्ञा प्रश्न की चर्चा क्यों की भैया डा अमित जी भैया डा पंकज जी  भैया अरविन्द जी का उल्लेख क्यों हुआ 

भैया पवन जी भैया मुकेश जी आचार्य जी आज कहां जा रहे हैं जानने के लिए सुनें

5.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 5 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०७ वां सार -संक्षेप

 मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।


मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 5 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०७ वां सार -संक्षेप


अनेक विकारों  जैसे क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि  का मूल कारण प्रायः  भ्रमित विचार होते हैं। जब हम विचारशीलता, आत्मचिंतन और विवेक के साथ जीवन का अवलोकन करते हैं, तो ये विकार धीरे-धीरे कम हो जाते हैं।

विचारों की शक्ति से भ्रम नष्ट होता है,मन स्थिर होता है,विचार आन्तरिक शुद्धि का साधन हैं।  वैचारिक संकल्प से हमारे शरीर में अनेक परिवर्तन संभव हैं शारीरिक व्याधियां भी दूर हो सकती हैं 


 जब भी हमें अवसर मिले हमें विचार अवश्य ग्रहण करने चाहिए ये सदाचार वेलाएं  जो  हमें शक्ति और शान्ति प्रदान करने वाला अध्यात्म का वातावरण उपलब्ध कराती हैं हमें यही अवसर प्रदान करती हैं तो आइये इनका लाभ उठाएं और प्रवेश करें आज की वेला में



जब हम किसी अत्यन्त प्रिय और शक्तिसंपन्न व्यक्ति जिसके प्रति हमारा भाव पूर्णरूपेण आश्वस्त रहता है, दुविधाग्रस्त नहीं रहता है,की शरण में जाते हैं तो हम अपने को सुरक्षित अनुभव करते हैं 

जितनी दुविधा रहती है उतना ही सांसारिक क्लेश रहता है अर्जुन की इसी दुविधा को दूर करने के लिए भगवान् कृष्ण कहते हैं 


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।


मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।


तू मेरा भक्त हो जा, मुझमें ही मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा -- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।


सब धर्मों का परित्याग करके तुम  मेरी ही शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक न करो।।


आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम अध्यात्म की विलक्षण शक्ति को पहचानने की चेष्टा करें हम अपनी संस्था के चारों आयामों को याद रखें, उठें जागें और लक्ष्य प्राप्ति तक रुके नहीं


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने

अध्यात्म के पारगामी तत्त्वदर्शी व्यक्तित्व श्री माधवराव सदाशिव गोलवलकर जी की किस हस्तरेखा के मिटने की बात बताई भैया मनीष कृष्णा जी से क्या हटाने के लिए आचार्य जी ने कहा भैया प्रवीण सारस्वत जी भैया विभास जी भैया सुनील शिवमङ्गल जी का नाम क्यों लिया अध्यात्म युवावस्था में ही सीखना चाहिए- किसने कहा था जानने के लिए सुनें

4.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 4 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०६ वां सार -संक्षेप

 तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥

तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 4 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०६ वां सार -संक्षेप

जो व्यक्ति सूक्ष्म (आध्यात्मिक, अव्यक्त) और स्थूल (भौतिक, दृश्य) जगत् के रहस्यों को समझ लेते हैं, वे जीवन की वास्तविकताओं को गहराई से पहचान जाते हैं।  उन्हें यह पता रहता है कि क्या नश्वर है और क्या शाश्वत, क्या मेरे वश में है और क्या नहीं और जीवन का उद्देश्य क्या है।इसलिए वे मोह, भय और भ्रम से मुक्त होकर निश्चिन्त और शांतिपूर्वक जीवन जीते हैं

इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से यही बताने का प्रयास आचार्य जी करते हैं

हमारे यहां तीन प्रकार के तप बतलाए गए हैं

शरीर संबन्धी मन संबन्धी और वाणी संबन्धी

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।


स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।



जो वाक्य उद्वेग न उत्पन्न करने वाला अर्थात् ऐसा वचन जो दूसरों को उद्विग्न,आहत न करे क्षुब्ध न करे,

सत्य, प्रिय और हितकारी हो

(सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥)

 तथा जो नियमित रूप से स्वाध्याय और अभ्यास से युक्त हो — वह वाणी का तप कहा गया है।  

देव, ब्राह्मण अर्थात् संसार के सारे कार्यों को एक किनारे कर ब्रह्म की उपासना में जो रत रहता है,गुरु और  परा विद्या को जानने वाले ज्ञानी जनों का पूजन,शुचिता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा अर्थात् किसी को कष्ट न पहुंचाना, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।।

मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है।।


यह जीवन भी तपस्या है  तपस्या अर्थात् हमें आनन्द मिले और दूसरे को सुख मिले 


जनि आचरज करहु मन माहीँ। सुत तप तेँ दुर्लभ कछु नाहीँ॥

⁠तप बल तेँ जग सूजइ विधाता। तप बल बिष्नु भये परित्राता ॥१॥


तप बल सम्भु करहिँ सङ्घारा। तप तेँ अगम न कछु संसारा॥

भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहइ सो लागा ॥२॥

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने धैर्य को सुस्पष्ट किया

हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कौन से दो ग्रंथ पढ़ें 

आचार्य जी आज कहां जा रहे हैं जानने के लिए सुनें

3.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०५ वां सार -संक्षेप

 मनुष्य को मनुष्यभाव का सदा विचार हो, 

प्रशंस्य कार्य का सदा समाज में प्रचार हो, 

न जीत का न हार का स्वशीष पर प्रभार हो 

स्वदेश बंधुओं से स्वार्थमुक्त दिव्य प्यार हो।

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 3 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०५ वां सार -संक्षेप


शरीर साधन है, साध्य नहीं।  यह कर्मयोग का एक अद्भुत विलक्षण अप्रतिम यंत्र है  जिससे सेवा,साधना और समाज के प्रति अपने कर्तव्य निभाए जाते हैं

हमें शरीर की चिन्ता अवश्य करनी चाहिए  हमें इसमें लिप्त नहीं रहना है किन्तु सचेत अवश्य रहना है  इसकी उपेक्षा भी नहीं करनी है क्योंकि हमें इस शरीर से समाज -देवता की बड़ी   पूजा करनी है

हम सनातनवादियों को राष्ट्र, जो हमारी तरह ही एक जीवन्त इकाई है, को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाना है

हम अनुभव करें कि हम केवल जीव नहीं हम तो तत्व,शक्ति और शौर्य का प्रतीक हैं  किन्तु जब हम अपने मनुष्यत्व को भूल जाते हैं, तो उसी स्थान पर दरिद्रता, अज्ञान और पतन आ घेरते हैं।इसलिए हम अपने मनुष्यत्व को विस्मृत न करें 


मनुष्य एक तत्व शक्ति शौर्य का प्रमाण है, 

हरेक अंधकार बेधने में रामबाण है, 

मनुष्य निज मनुष्यता समझ सका नहीं जहाँ

जहान की दरिद्रता सिमट सिमट घिरी वहाँ।

हम स्वयं अपने भीतर गुरुत्व उत्पन्न करें और इस गुरुत्व के लिए हमें संयम और नियमों का पालन करना चाहिए

सात्विक मार्ग से आगे बढ़ें 

अपनी इकाई में लिप्त न हों

हमारे अन्दर परिवार भाव जाग्रत हो 

यह प्रयास करें कि परिवार प्रसन्न आनन्दित रहे हम युग भारती परिवार में किसी एक सदस्य को कष्ट हो तो सबको कष्ट होना चाहिए ऐसी अपेक्षा आचार्य जी हमसे कर रहे हैं 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने 

माधव ! मोह - फाँस क्यों टूटै ।

बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥१॥ का उल्लेख क्यों किया 

भैया मोहन भैया मनीष भैया संतोष मल्ल जी की चर्चा क्यों हुई 

विद्याभारती के श्री कृष्णगोपाल जी और दीनदयाल शोध संस्थान के श्री सुरेश सोनी जी किस प्रसंग में आए जानने के लिए सुनें

2.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 2 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०४ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 2 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०४ वां सार -संक्षेप


भक्ति वास्तव में कोई दिखावा कोई ढोंग या केवल बाह्य आचरण नहीं, अपितु एक आंतरिक अनुभव है   

जब भक्ति अहंकार से मुक्त और सच्ची भावना से युक्त होती है, तभी वह भक्त को शक्ति देती है  वह आत्मबल, सहिष्णुता, करुणा और विवेक का एक अद्भुत स्रोत बन जाती है। इस कारण हमें भक्तिभाव की शरण में आ जाना चाहिए

मन का मृग भड़का फिरता हो 

बेतरह कुलाचें भरता हो

मेधा से तनिक न डरता हो 

डग ऊंचे ऊंचे भरता हो

तब भक्तिभाव की शरण गहो

हनुमत् चरणों को पकड़ कहो

हे महावीर हे भक्तराज है कठिन जगत का कौन काज

जो आप नहीं कर सकते हैं..

भक्तिभाव की शरण में आकर तुलसी कहते हैं


केसव! कहि न जाइ का कहिये।

देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥

सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।


धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥

रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।


बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।


तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥


भाव यह कि यह अद्भुत संसार सूरज की किरणों में जल के समान भ्रमजनित है अर्थात् मृगमरीचिका 

जैसे सूर्य की किरणों में जल समझकर उसके पीछे दौड़ने वाला हिरन जल न पाकर प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसार में सुख समझकर उसके पीछे दौड़ने वालों को भी बिना मुख का मगर यानी निराकार काल ग्रस लेता है। इस संसार को कोई सत्य कहता है, कोई मिथ्या  और कोई सत्यमिथ्या से मिला हुआ मानता है तुलसीदास के मत से तो जो इन तीनों भ्रमों से निवृत हो जाता है वही अपने असली स्वरूप को पहचान सकता है।

संसार को जितनी देर विस्मृत कर सार में जो निमग्न रहता है वह आनन्द में रहता है

किन्तु आत्मा की पूर्णता के लिए तपस्या और जीवन के आकर्षणों दोनों का समावेश आवश्यक है। केवल आत्मसंयम से आत्मा का विकास अधूरा रह जाता है; इसके लिए जीवन के विविध अनुभवों और भावनाओं का अनुभव भी आवश्यक है।

तभी कवि कहता है

तपस्वी आकर्षण से हीन कर सके नहीं आत्म-विस्तार


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मोहन जी भैया मनीष जी भैया पंकज जी भैया मलय जी का आज उल्लेख क्यों किया भक्ति का सांसारिक स्वरूप क्या है जानने के लिए सुनें

1.6.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष षष्टी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 1 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४०३ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष षष्टी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 1 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४०३ वां सार -संक्षेप

श्री रामचरितमानस केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, अपितु एक मानवजीवन-उद्धारक मार्गदर्शिका है।


राम की कथा संसार की व्यथाओं को निर्मूल करने का आधार है

 यह कथा मर्यादा, धर्म, कर्तव्य, त्याग और आदर्श का ऐसा संपूर्ण चित्रण है, जो मनुष्य को हर प्रकार की मानसिक, नैतिक और सामाजिक व्यथाओं से उबारने में सक्षम है।  

रामकथा में मनुष्य के जीवन के हर पहलू — संघर्ष, प्रेम, भ्रातृत्व, शत्रुता, वनवास, राजधर्म का समाधान है।  



इस कारण राम की कथा को सुनना, मनन करना और जीवन में उतारना — दुःखों से मुक्ति और आत्म-शांति का उपाय है कथा को सुनते समय हमें भावुक अवश्य होना चाहिए

मानस में चार वक्ता और चार श्रोता हैं

पहले वक्ता भगवान् शिव और श्रोता माता पार्वती हैं 

दूसरे वक्ता कागभुशुंडी और श्रोता पक्षीराज गरूड़ हैं 


एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥

जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥


तीसरे वक्ता याज्ञवल्क्य (जागबलिक) और श्रोता भारद्वाज मुनि हैं  याज्ञवल्क्य ऋषि जो मूलतः  शिव की नगरी काशी में रहते हैं यह कथा  यज्ञों की नगरी प्रयाग में सुना रहे हैं


तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ll

तब छह मुख वाले पुत्र कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में इनके जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत् उन्हें जानता है।

उस समय भी असुर थे उनको मारने का सांसारिक विधान उस समय भी था

हम लोगों के साथ आज यही स्थिति है

हम सनातन धर्म को मानने वाले भी असुरों का संकट देख रहे हैं


चौथे वक्ता तुलसीदास और हम सब श्रोता हैं

श्री रामचरितमानस की रचना के समय धार्मिक सम्प्रदायों में अलगाव बढ़ रहा था।  मुगल शासन के तहत हिंदू समाज असुरक्षा और विघटन की स्थिति में था।  शैव-वैष्णव परस्पर वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा में लगे थे

शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच वैचारिक मतभेद था  उनमें कहीं-कहीं कटु संघर्ष भी देखा जाता था। 

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के माध्यम से न केवल रामभक्ति को सुदृढ़ किया, बल्कि शिव और राम की एकता को भी प्रकट किया।


सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥


शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।

  

तुलसीदास जी ने राम और शिव को अभिन्न बताते हुए साम्प्रदायिक समन्वय की स्थापना की और उस युग की धार्मिक उथल-पुथल में भक्ति को स्थिर आधार बनाया।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि भैया मोहन जी को पथरी हो गई है और भैया मनीष जी को भी कष्ट है


आचार्य जी ने श्रद्धेय अशोक सिंघल जी की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें