31.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 31 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४६३ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  31 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४६३ वां सार -संक्षेप

एक अत्यन्त विद्वान् शिक्षक विकास दिव्यकीर्ति के वीडियो,  जिसमें उन्होंने वर्तमान परिस्थितियों का अत्यन्त रोचक चित्रण प्रस्तुत किया है, को आधार बनाते हुए आचार्य जी कहते हैं कि वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।  हम सनातन धर्मियों को चाहिए कि अपने भीतर शिक्षकत्व का जागरण करें अध्ययन ,स्वाध्याय और लेखन में रत होकर गम्भीर चिन्तन कर मन्थन कर उसके मन्थर को प्रस्तुत करें ताकि नई पीढ़ी भय और भ्रम से मुक्त होकर अपने गौरवशाली अतीत, संस्कृति और मूल्यों को जान सके व उन पर गर्व कर सके। यही शिक्षकत्व युगनिर्माण का आधार बन सकता है और इस पीढ़ी को वात्याचक्रों में फँसकर भ्रमित, भयभीत होने से बचा सकता है उसे उड़ाने से बचा सकता है


आंधियां जोर की चलती हों 

उल्काएं रूप बदलती हों 

धरती अधैर्य धर हिलती हो 

अपनों की सुमति न मिलती हो 

तब जय श्रीराम पुकार उठो 

अपना पौरुष ललकार उठो 

पुरखों का शौर्य निहार उठो 

हनुमन्त तेज को धार उठो


(तब )जय श्रीराम (पुकार उठो) का स्वर जब भाव से निसृत होता है, तो वह केवल एक उद्घोष नहीं रहता वह श्रद्धा, विश्वास और प्रेरणा का प्रतीक बन जाता है। इसका आधार मात्र नाम नहीं, श्रीराम के कृत्य हैं उनका मर्यादा पालन, न्यायप्रियता, त्याग, तप और शौर्य।

श्रीराम शौर्य के प्रतीक हैं क्योंकि उनका पराक्रम धर्म-संरक्षण से जुड़ा है। उन्होंने ताड़का, रावण जैसे अधर्मियों का वध किया, संगठन, नेतृत्व और युद्धनीति का आदर्श प्रस्तुत किया और उनका शौर्य मर्यादा के भीतर रहकर धर्म की रक्षा हेतु प्रकट हुआ। यही संयमित शक्ति उन्हें अद्वितीय बनाती है।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने राष्ट्रीय अधिवेशन के बारे में क्या परामर्श दिया भैया विनय वर्मा जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

30.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 30 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४६२ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  30 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४६२ वां सार -संक्षेप


हम सौभाग्यशाली हीं हैं कि विषम परिस्थितियों से निरन्तर आच्छादित रहने के उपरांत भी आचार्य जी नित्य हमें दिशा और दृष्टि देते हैं

आस्था की जागृति का आह्वान करते हैं ताकि इस अद्भुत संसार में सुशोभित ढंग से हम गतिशील हो सकें, चंचल और प्रमथन स्वभाव के मन का निग्रह कर सकें, क्षात्रतेज को धारण कर सकें और आवश्यक होने पर दुष्टों पर वज्र बनकर टूट पड़ें


जब संसार अस्थिर हो, सहयोग न मिले, संकट गहराए तब भीतर के पौरुष को जगाकर, भगवान श्रीराम का स्मरण करके, हनुमानजी के तेजस्वी साहस को धारण कर आगे  बढ़ें इसी का सन्देश देती  निम्नांकित पंक्तियां देखिये


आंधियां जोर की चलती हों 

उल्काएं रूप बदलती हों 

धरती अधैर्य धर हिलती हो 

अपनों की सुमति न मिलती हो 

तब जय श्रीराम पुकार उठो 

अपना पौरुष ललकार उठो 

पुरखों का शौर्य निहार उठो 

हनुमन्त तेज को धार उठो


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भाईसाहब का, माता जी का नाम क्यों लिया भैया डा मनीष वर्मा जी, डा पंकज जी, डा अमित जी का उल्लेख क्यों हुआ राम -मन्त्र क्या है जानने के लिए सुनें

29.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 29 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४६१ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष   पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  29 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४६१ वां सार -संक्षेप

धर्म और कर्म वास्तव में अत्यन्त व्यापक और गूढ़ अवधारणाएँ हैं। ये केवल धार्मिक अनुष्ठानों या बाह्य आचरण तक सीमित नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षण को दिशा देने वाले तत्व हैं। धर्म का आशय है कर्तव्य, मर्यादा, न्याय और सार्वभौमिक सदाचरण, जबकि कर्म जीवन की गति है विचार, व्यवहार और प्रयास।

सनातन परंपरा में धर्म और कर्म को एक-दूसरे से अलग नहीं देखा जाता। धर्म से प्रेरित कर्म ही पुण्य का स्वरूप बनता है  और निष्काम कर्म ही धर्म की पुष्टि करता है। यही दोनों मिलकर जीवन को सार्थक बनाते हैं यही सनातन जीवनदृष्टि के प्राण हैं।हमारे ऋषियों ने अथक परिश्रम करके ये सब हमें प्रस्तुत किया किन्तु भ्रमित होने के कारण वह ऋषित्व हमारे भीतर प्रविष्ट नहीं हो सका  सौभाग्य से इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से हम उस ऋषित्व, जो प्रदर्शन का स्वरूप न बनकर दर्शन को स्पष्ट करे, की प्राप्ति कर सकते हैं तो आइये अध्ययन और स्वाध्याय में विश्वासपूर्वक मन लगाने का संकल्प लेते हुए आत्मदर्शन में प्रवृत्त होते हुए ताकि विषम परिस्थितियों में भी सम रह सकें अवगाहन करें आज की वेला में

हमारे यहां परिवारों का परिपोषण अत्यन्त ध्यानपूर्वक किया गया है इसको विस्तार से समझाते हुए आचार्य जी ने जन्म -कुण्डली,कामधेनु तन्त्रम्,

कुण्डलिनी चक्र जो योगमार्ग और हमारी आध्यात्मिक परंपराओं में, शरीर में स्थित सात ऊर्जा केंद्रों को संदर्भित करता है, की चर्चा की

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि अग्रज हमें सौभाग्य से प्राप्त हैं  इसका तात्पर्य है कि हमारे जीवन में जो वरिष्ठ, अनुभवी और मार्गदर्शक स्वरूप अग्रज हैं, उनका साथ हमें भाग्यवश मिला है। उनके सान्निध्य से हमें जीवन जीने की कला, मूल्य और प्रेरणा प्राप्त होती है। वे हमारे लिए छाया भी हैं और दीपक भी। अतः हमें उनसे अवश्य लाभान्वित होना चाहिए l

भैया मोहन कृष्ण जी भैया विभास जी कवि अतुल जी की चर्चा क्यों हुई फार्च्यून अस्पताल के कमरा नं ४१० का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

28.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 28 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४६० वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष  चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  28 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४६० वां सार -संक्षेप


आपद् धर्म का सामना जीवन में किसी भी समय, किसी को भी करना पड़ सकता है  व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र किसी को भी। ऐसे समय में धैर्य, विवेक और कर्तव्यनिष्ठा से काम लेना चाहिए। जो सामान्य परिस्थितियों में उचित नहीं लगता, वह आपदा में उचित और आवश्यक हो सकता है।  धर्म का मूल उद्देश्य लोकमंगल और संरक्षण है, न कि जड़ नियमों का पालन।

इसलिए आपद् धर्म का निर्वाह एक प्रकार से मानवता, उत्तरदायित्व  का अभ्यास है। 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥


कहने का तात्पर्य है कि आपद् धर्म का पालन आवश्यक है, क्योंकि यह जीवन और समाज की रक्षा का आधार बनता है। यही संसार में रहने की उचित शैली भी है l


आचार्य जी परामर्श देते हुए कहते हैं कि हम जिस कर्तव्य का परिपालन हम कर रहे हैं उसे भक्तिभावपूर्वक और अपनी आत्मशक्ति के साथ यथासमय और यथावश्यक रीति के साथ पूर्ण करें

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पुनीत जी डा मनीष वर्मा जी डा पंकज श्रीवास्तव जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें

27.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 27 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५९ वां सार -संक्षेप

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष  तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  27 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५९ वां सार -संक्षेप 


यह सदाचार वेला आनंद और उत्साह का स्रोत है। यह वह क्षण है जब हम अपने भीतर की शक्ति, सामर्थ्य और शौर्य की अनुभूति करते हैं। यह जीवन को सही ढंग से जीने की शैली, उचित दिशा और स्पष्ट दृष्टि प्राप्त करने का अवसर है। यही वह समय है जब हम बाह्य हलचलों से ऊपर उठकर आत्मस्थ होने का प्रयास करते हैं  अपने जीवन को सार्थकता और गरिमा से युक्त करने के लिए।

 ऐसी वेलाओं के माध्यम से विषम परिस्थितियों से घिरे रहने के पश्चात् भी आचार्य जी,जो कहते हैं कि विश्वास जीवन का आनन्द है, नित्य हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं यह हमारा सौभाग्य है

हनुमान जी की कृपा से प्राप्त इन सदाचार वेलाओं का हमें लाभ उठाना चाहिए

तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में 


तुलसीदास जी कहते हैं  इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री राम जी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए


एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥3॥

भगवान् राम के स्मरण का तात्पर्य यही है कि उनका पूरा जीवन प्रारम्भ से लेकर अंत तक संघर्षमय है तो समाधानमय भी है यही जीवन हम लोगों का भी है सदैव विश्वास रखना चाहिए कि यदि संघर्ष हैं तो उनके समाधान अवश्य हैं यह सकारात्मक सोच है

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि युगभारती एक ऐसा संगठन है जिसमें परिवार का बोध है विचार की असीमित शक्ति है और विश्वास का संबल है इसका स्वरूप शक्तिमय है और स्वभाव भक्तिमय है


जीवन तीन अक्षरों का अद्भुत अनुबन्ध हुआ करता है पंक्ति की व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने तीनों अक्षरों का अर्थ बताया

आचार्य जी नित्य हमें अध्ययन और स्वाध्याय का परामर्श देते हैं

भैया उत्कर्ष पांडेय जी आदि के नाम क्यों आए ज्योति बने ज्वाला का क्या तात्पर्य है जानने के लिए सुनें

26.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 26 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५८ वां सार -संक्षेप

 टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।

रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  26 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५८ वां सार -संक्षेप

आचार्य जी का कार्य केवल ज्ञान देना नहीं है, वे हमारे भीतर निहित शक्ति, बुद्धि, विचार, सत्त्व और तत्त्व को जाग्रत करते हैं। जो आवरण अज्ञान, आलस्य या भ्रम के कारण उन पर पड़ा रहता है, उसे वे प्रतिदिन अपने मार्गदर्शन से हटाने का प्रयास कर रहे हैं

यह प्रक्रिया केवल बौद्धिक नहीं, आत्मिक होती है जिससे व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है। इस प्रकार आचार्य जी हमें केवल शिक्षित नहीं करते, बल्कि हमारे भीतर के आत्मप्रकाश को प्रकट करने का कार्य करते हैं कि हम अपने आत्मदृश्य का अनुभव करें यही एक सच्चे गुरु का कार्य है।

"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"

तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में

भारत का इतिहास  खंगालें तो हम देखते हैं इस पर अनेक संकट आए हैं जैसे आक्रमण, विभाजन, प्राकृतिक विपदाएँ, सामाजिक संघर्ष किन्तु हर बार यह राष्ट्र पुनः उठ खड़ा हुआ। इसका कारण केवल बाह्य प्रयास नहीं, अपितु वह आंतरिक अदृश्य शक्ति है जो हमें संरक्षण देती रही है  यही परमात्मा की शक्ति है, यही ईश्वर का अनुग्रह है। यह विश्वास ही हमारी सकारात्मक सोच की नींव है कि हम अकेले नहीं हैं, कोई शक्ति हमारे साथ चल रही है, हमारे पुरुषार्थ को संबल दे रही है। यही सोच हमें आशा, साहस और संकल्प देती है।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया 

सज्जनों की संगठित शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है

अपने कर्तव्य के निर्वहन के काल में विषम परिस्थितियों को अनदेखा करना चाहिए तभी वह  कृत्य आत्मकल्याण के साथ दूसरों को भी कल्याण का मार्ग दिखाने में सक्षम हो जाता है

राजनैतिक चर्चा में  आशाजनक विषय का चयन करें


इसके अतिरिक्त भैया राघवेन्द्र जी १९७६,भैया पुनीत श्रीवास्तव जी १९८५, भैया मोहन कृष्ण जी १९८६, भैया आशीष जोग जी १९८३, भैया पंकज श्रीवास्तव जी १९८९, भैया उत्कर्ष पांडेय जी का नाम आचार्य जी ने क्यों लिया जानने के लिए सुनें

25.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिप्रदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 25 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५७ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिप्रदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  25 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५७ वां सार -संक्षेप

केवल आध्यात्मिक ज्ञान के आधार पर संसार में हम शान्ति प्राप्त नहीं कर सकते उसके लिए  शौर्य का उपासक होना भी हमारे लिए आवश्यक है अर्थात् शौर्य से प्रमंडित अध्यात्म हमारे लिए नितान्त नितान्त अनिवार्य है यह वह अध्यात्म है जो केवल मौन, ध्यान, वैराग्य और तपस्या तक सीमित न रहकर धर्म की रक्षा, अन्याय के प्रतिकार और कर्तव्य के निर्वहन के लिए शौर्य और पराक्रम को भी आत्मसात् करता है यह अध्यात्म प्रेरित करता है भीतर से और सक्रिय करता है बाहर से जिसमें शान्ति और शक्ति दोनों साथ होते हैं।

अध्यात्म हमारे यहां कभी न कम था न अभी कम  है और न आगे भी कम रहेगा किन्तु हमारे इतिहास की जो भयंकर भूलें थीं  उसका कारण था कि जितनी मात्रा में हमें शौर्य का उपासक होना चाहिए था उतना रहे नहीं

अतः हमारे लिए शौर्य से परिमंडित अध्यात्म आज भी जरूरी बन गया है जिसे देख कायर पुरुष थर थर कांपे 

कभी परशुराम का परशु ऐसा चला कि दुष्टों का विनाश होता गया उन्होंने अनेक असंख्य दुष्टों का नाश किया किन्तु वे अपने आत्मीय जनों में अपने तेजस को प्रविष्ट नहीं करा पाए यह काम तो भगवान् राम ने किया जिन्होंने  राष्ट्रभक्त जनसमूह में उसी तेजस  के संप्रेषण के लिए अयोध्या से लंका तक की यात्रा की

राम कथा में व्यवहार और तत्त्व दोनों के दर्शन होते हैं हम  आत्महीनता से दूर होते हुए इसी रामत्व की अनुभूति करते हुए राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित बनें

इसके अतिरिक्त

मैं ही शिक्षक बनूं और मैं ही शिष्य बनूं को आचार्य जी ने कैसे व्याख्यायित किया गीता के किन अध्यायों की चर्चा हुई कबीरबीजक का उल्लेख क्यों हुआ सकारात्मकता क्या है जानने के लिए सुनें

24.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 24 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५६ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  24 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५६ वां सार -संक्षेप


सत् का अभ्यास  अर्थात् सत्य, धर्म, संयम, करुणा और आत्मिक मूल्य  मनुष्य के लिए एक विराट् उपलब्धि  है। इसे पाने के लिए उसे सचेतन प्रयास करना पड़ता है। यह अभ्यास श्रम, विवेक और सत्संग के माध्यम से ही संभव होता है। सौभाग्य तब संयुत होता है जब व्यक्ति को ऐसा मार्गदर्शन, वातावरण या प्रेरणा प्राप्त हो जो उसे सत् के पथ पर ले जाए।सौभाग्य से आचार्य जी द्वारा नित्य उद्बोधन से यह हमें प्राप्त है हमें इसका लाभ उठाना चाहिए

तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में 



भगवद्गीता का छठा अध्याय "आत्मसंयम योग" ध्यानयोग और आत्मविकास का गहन मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को सच्चे योगी के लक्षण, ध्यान की विधि, मन के संयम, और योगी की महिमा के विषय में उपदेश देते हैं

ध्यान में सबसे अधिक बाधक होता है चांचल्य 

 अर्जुन को चञ्चल मन को अचञ्चल बनाना अत्यन्त दुष्कर लग रहा है तो उसके प्रश्न पर भगवान् उत्तर देते हैं 

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। 

अभ्यास और वैराग्य से मन नियमों में बंध जाता है कार्य कठिन है किन्तु पुरुष ही कठिन कार्य करता है उसे पुरुषार्थ करने का भाव, विचार और शक्ति परमात्मा ने दी है भ्रम के कारण उसका अभ्यास नहीं हो पाता भ्रम दूर कर उसे पुरुषार्थ करना चाहिए

 जीवन की यथार्थता यही है केवल आनंद नहीं  केवल पीड़ा नहीं,  

बल्कि दोनों का संगम।  

इन दोनों अवस्थाओं में समता बनाए रखना ही जीवन का वास्तविक अभ्यास है।

जीवन केवल साँसों की डोर नहीं, वह तो चेतना की पुकार है, जिसमें भाव भी हैं, विचार भी हैं, संघर्ष तो है ही

जीवन वह यज्ञ है जिसमें हम अपने अहं को आहुति देते हैं  

ताकि भीतर से कोई "मैं" नहीं, केवल "हम" शेष रहे।  

इसलिए जीवन को केवल जीवित रहने की क्रिया न मानें,  

बल्कि उसे जिएँ सार्थक रूप में, जागरूक होकर, दूसरों के लिए उपयोगी बनते हुए।इसी कारण हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है राष्ट्र-निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष

आचार्य जी द्वारा रचित निम्नांकित पंक्तियों में यही भाव प्रकट हो रहे हैं 

केवल प्राणों का परिरक्षण जीवन नहीं हुआ करता है

जीवन जीने को दुनिया में अनगिन सुख सुर साज चाहिए......


यह जीवन रचनाकर्ता की एक अनोखी  अमर कहानी 

इसमें रोज बिगड़ते  बनते हैं दुनिया के राजा रानी

जीवन सुख जीवन ही दुःख है जीवन ही है सोना चांदी

जीवन ही आबाद बस्तियां जीवन ही जग की बरबादी

जीवन तीन अक्षरों का अद्भुत अनुबन्ध हुआ करता है 

केवल प्राणों का..

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने उपराष्ट्रपति का उल्लेख क्यों किया आज आचार्य जी कहां हैं जानने के लिए सुनें

23.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 23 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५५ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  23 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५५ वां सार -संक्षेप


परिस्थितियां  हम सामान्य मनुष्यों को विचलित करती ही हैं। हम उनसे बचना चाहते हैं, किन्तु वह टालने से टलती नहीं। यही संसार का स्वभाव है सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव, अनुकूलता-विपरीतता इसका ही भाग हैं।


संसार समर सागर अथवा है इन्द्रजाल 

दुर्धर्ष विमर्श अमर्ष या  कि है काल व्याल....


परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥ १.३२ ॥ भर्तृहरि ...



किन्तु जब "हम भारतीय हैं" यह बोध भीतर जागता है, तो क्षणभर में सांसारिक हीनताएं, भ्रम, स्वार्थ आदि सब पीछे छूट जाते हैं। यह विचार हमारी आत्मा को उस परम्परा से जोड़ देता है जो केवल इतिहास नहीं, बल्कि अमरत्व की चेतना है।

हमारा अध्यात्म केवल त्याग और वैराग्य तक सीमित नहीं ,यह शौर्य, जागरण और संकल्प का भी पथ है। यह शौर्यप्रमंडित अध्यात्म ही हमें संगठित करता है, प्रेरित करता है और दिशा देता है। इसी बोध से हम बैठकें करते हैं, कार्यक्रम बनाते हैं और उस अमर चेतना को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्त करने का प्रयास करते हैं।यह अमरत्व की उपासना ही हमारे संगठन युग भारती का मूल है। हम युगभारती के सदस्य अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए तत्त्व शक्ति विश्वास बुद्धि विचार कौशल का सदुपयोग करते हुए जो सुप्त हैं उन्हें जाग्रत करने का प्रयास करते हैं और जो जाग्रत हैं उन्हें साथ लेने का प्रयास करते हैं


इसके साथ आचार्य जी ने हमें दृश्य नहीं द्रष्टा बनने का परामर्श क्यों दिया भैया दुर्गेश माधव जी, भैया शुभेन्द्र शेखर जी,भैया दिनेश भदौरिया जी, भैया मनीष कृष्णा जी का नाम क्यों लिया, कारगिल की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें

22.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५४ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  22 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५४ वां सार -संक्षेप


आत्मचिन्तन वह पहला द्वार है जो आत्मदर्शन की ओर ले जाता है। जब मनुष्य आत्मस्थ हो जाता है, तब उसका बाह्य जगत के प्रपंचों से मोह छूटता है और भीतर का तेज प्रकट होता है। यही मनुष्यत्व का जागरण है जो व्यक्ति को केवल जीव मात्र से श्रेष्ठ मानव बनाता है।

ऐसे जाग्रत मनुष्य के लिए कोई भी संकट, चाहे वह दैहिक हो, दैविक हो या भौतिक हो उसे विचलित नहीं कर सकता क्योंकि उसका केंद्र आत्मा में स्थित होता है।

जीवन की पूर्णता इसी में है कि हम बारंबार गिरें, पुनः उठें, परन्तु लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें 

संसार की चमचमाहट में अपना लक्ष्य न भूलें

और हमारा लक्ष्य है कि हम राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित बनें

हमारी बुद्धियां ईश्वर की कृपा से प्रमा  प्रज्ञा मेधा आदि पार कर विवेक तक की यात्रा कर सकती हैं  अतः इस पर विश्वास करें और कार्य करें 


जहां चिन्तन का भाव होता है वहां चर्चा बहुत होती है किन्तु मध्यमस्तरीय व्यक्ति निष्कर्ष तक पहुंचते नहीं हैं और पहुंचते हैं तो उसके लिए प्रयत्न नहीं करते हैं 

हम उस स्तर से ऊपर हैं अतः हमें निष्कर्ष तक पहुंचना ही चाहिए

श्रेष्ठ चिन्तक विचारक किसी भी विषम परिस्थिति के आने पर निश्चिन्त नहीं बैठते वे उसके हल में जुट जाते हैं

जैसे इस समय हमारा उपलक्ष्य है कि सितम्बर  माह में होने वाला अधिवेशन सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करे तो उस उपलक्ष्य को पाने के लिए हम परिस्थितियों को अनदेखा कर जुट जाएं जिन्होंने शुल्क जमा कर दिया है सक्रियता दिखाते हुए कम से वे दो लोगों का शुल्क और जमा कराएं हम लोग एक दूसरे के संपर्क में रहें और उत्साह का वातावरण निर्मित करें


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया शुभेन्द्र जी भैया प्रदीप जी भैया मोहन जी भैया वीरेन्द्र जी भैया पुनीत जी का नाम क्यों लिया उपराष्ट्रपति जी का उल्लेख क्यों हुआ

कृष्णानन्द  सागर जी ने कौन सा विषय बताया जानने के लिए सुनें

21.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५३ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  21 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५३ वां सार -संक्षेप


हमारे ऋषियों को जो विशिष्ट वाणी, व्यवहार और चिन्तन की दृष्टि प्राप्त हुई , वह अद्भुत और कालातीत है। उन्होंने केवल ज्ञान ही नहीं अर्जित किया, बल्कि उस ज्ञान को जीवन में समाहित कर उसे जग के कल्याण हेतु उपयोगी बनाया ऋषित्व केवल एक पद नहीं, एक चेतना है जो सत्य की खोज में, तप और सेवा में नित्य संलग्न रहती है।

आचार्य जी का प्रयास यही है कि वही तत्त्व शक्ति विश्वास से भरी ऋषि-चेतना, वह ऋषित्व हमारे भीतर भी किसी न किसी रूप में प्रविष्ट हो और विकसित हो। वे नित्य हमें ऐसे सूत्रों से संयुत करते हैं जो आत्मबोध, कर्तव्यबोध और सदाचारमय पथ की ओर प्रेरित करते हैं। यह प्रयास केवल शास्त्रज्ञान का नहीं, अपितु आन्तरिक रूपांतरण का भी है जिससे हम,  जो सार को विस्मृत किए रहते हैं और संसरण को अपनाए रहते हैं,भ्रमित रहते हैं,स्वयं को पहचानें और अपने समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी बनें।

इसी कारण हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है 

राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष 


आचार्य जी कहते हैं हम  प्रातःकाल प्रकृति के दर्शन करें जिसे स्रष्टा ने बनाया और हमने विकृत किया स्वार्थ के कारण इसी प्रकार की रचनाओं को विकृत करने वाले अनेक होते हैं

 दैत्य यज्ञ, तप, साधना, ऋषि-मुनियों की चर्या आदि को बाधित कर देते थे l मानस में एक प्रसंग है


पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥

अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥

इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं 

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

 और उन्होंने ऐसा कर भी दिया किन्तु निसिचरत्व  गया नहीं वह अब भी सुरक्षित है उसी के मार्जन का हम प्रयास करते हैं 

जिसके लिए हम संगठित रहने का प्रयास करते हैं क्योंकि हम कलियुग में हैं 

सङ्घे शक्ति: कलौयुगे

 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने संगठन का भाव  कैसे वर्णित किया भैया पुनीत जी का उल्लेख क्यों हुआ आचार्य जी आज कहां हैं जानने के लिए सुनें

20.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 20 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५२ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  20 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५२ वां सार -संक्षेप

हम संसार की चकाचौंध में भटके नहीं और हम यह समझें कि हम संसार हैं तो संसार से इतर भी हैं, हम धनार्जन करें यशस्विता की चाह रखें किन्तु समाजोन्मुखता और राष्ट्रोन्मुखता बनाए रखते हुए,इस कारण अत्यन्त विषम परिस्थितियों में रहने पर आचार्य जी नित्य हमें व्यवस्थित रूप से प्रभावशाली ढंग से प्रबोधित करते हैं यह हमारा सौभाग्य है हमें इसका लाभ उठाना चाहिए 


जब आत्मबोध असंतुलित हो जाता है  कभी अत्यधिक आत्ममुग्धता या कभी आत्महीनता की ओर  तो व्यक्ति अपनी वास्तविक स्थिति से विचलित हो जाता है। न तो वह अपनी क्षमताओं का सही मूल्यांकन कर पाता है, न ही अपनी सीमाओं को स्वीकार कर पाता है।इसलिए आत्मबोध को संतुलित रखने के लिए नित्य एकान्त का सेवन आवश्यक है एकांत केवल बाह्य नीरवता नहीं, बल्कि आंतरिक शांति का भी अवसर देता है जहाँ हम बिना भटकाव के स्वयं को स्पष्ट देख पाते हैं। यही अभ्यास हमें हमारी यथार्थ पहचान की ओर ले जाता है।

बाक्य - ग्यान अत्यंत निपुन भव - पार न पावै कोई ।


निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई ॥२॥ (विनय पत्रिका)


ज्ञान की बातें करना, या केवल शब्दों में निपुण होना,संसार से पार होने के लिए पर्याप्त नहीं है। जैसे, रात में घर के अंदर दीपक जलाने की बातें करने से  या उसके बारे में व्याख्यान देने से, अंधेरा दूर नहीं होता, जब तक कि वास्तव में दीपक न जलाया जाए। इसी प्रकार, केवल ज्ञान की बातें करने से या उसका बखान करने से, अज्ञान का नाश नहीं होता, जब तक कि हृदय में ज्ञान का प्रकाश न हो।

युगभारती के हम सभी सदस्य विलक्षण हैं अत्यन्त क्षमतासम्पन्न हैं

हम अपने लक्ष्य को विस्मृत न करें राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करें  संगठित रहते हुए समाज और राष्ट्र के प्रति अपना कार्य व्यवहार आत्मतोष के साथ निर्लिप्त भाव से बिना स्वार्थ के करें 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया विकास मिश्र जी १९९१, भैया मनीष कृष्णा जी, भैया पवन जी, भैया पंकज जी, भैया पुनीत जी का नाम क्यों लिया पत्रिका के लिए आचार्य जी कौन सा लेख लिख रहे हैं जानने के लिए सुनें

19.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 19 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५१ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  19 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५१ वां सार -संक्षेप


हनुमान जी की कृपा से आचार्य जी द्वारा उद्बोधित यह सदाचार संप्रेषण वास्तव में आत्मदर्शन और तत्त्वदर्शन का सजीव उदाहरण है। आचार्य जी सदृश जब कोई साधक आत्मस्थ होकर साधना के द्वार में प्रवेश करता है, तो उसकी वाणी केवल शब्द नहीं रहती, वह एक जीवंत अनुभव बन जाती है जो श्रोताओं के हृदय को स्पर्श करती है।यह वाणी श्रोताओं के मन में आत्मचिंतन और आत्मदर्शन की प्रेरणा उत्पन्न करती है, जो अंततः उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाती है।तो आइये इसी परिवर्तन की अपेक्षा में प्रवेश करें आत्मजागृति, कर्मप्रेरणा और युगधर्म के पालन का संदेश देती आज की वेला में


 चारों ओर अविश्वास और निराशा का अंधकार छाया है ऐसे में अपने भीतर के दीपक को प्रज्वलित करना आवश्यक है  ताकि हम अपनी व्याधियां दूर कर सकें 


यह अविश्वास का अंधकार है आत्मदीप हो जाओ

युगचारण जागो कसो कमर फिर से भैरवी सुनाओ

( आचार्य जी द्वारा रचित अपने दर्द दुलरा रहा हूं  की ४४वीं कविता)


केवल आध्यात्मिक ज्ञान या केवल कर्म दोनों में से कोई एक ही पर्याप्त नहीं है। संसारिक कर्तव्यों को निभाते हुए आत्मज्ञान की ओर बढ़ना ही संपूर्ण जीवन है। संसार की लिप्तता में हमें यह अनुभूति होने लगे कि हम कौन हैं तो हमारा कल्याण निश्चित है

हम हैं

चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् 

अविद्या के साथ विद्या को भी जानें 

ईशावस्योपनिषद् में उल्लिखित है

सत्य का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है अर्थात् ईश्वर का सत्यस्वरूप माया, अज्ञान या प्रकृति के आवरण से ढका हुआ होता है। हे पोषक सूर्यदेव! सत्य के विधान की उपलब्धि के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए आप वह ढक्कन अवश्य हटा दें l चमचमाहट में भ्रमित होने से बचाएं l


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अतुल मिश्र जी १९८३, भैया विवेक चतुर्वेदी जी भैया पुनीत जी का नाम क्यों लिया संगठन कैसे मजबूत होगा अपनी युगभारती प्रार्थना की क्या विशेषता है जानने के लिए सुनें

18.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 18 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४५० वां सार -संक्षेप

 सम्भूतिञ्च विनाशञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥


(ईशावास्योपनिषद् का १४वां मंत्र जो आध्यात्मिक ज्ञान की परिपक्वता का द्योतक है)


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  18 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४५० वां सार -संक्षेप

यह भगवान् की कृपा है कि आचार्य जी नित्य हमें प्रबोधित कर रहे हैं हमें इसका लाभ उठाना चाहिए

हमारा सनातन धर्म अत्यंत विलक्षण, गूढ़ और समग्र जीवन-दृष्टि से युक्त है। इसमें आश्रम-व्यवस्था, चार पुरुषार्थों की संतुलित साधना जैसे तत्व सम्मिलित हैं, जो जीवन को न केवल लौकिक सफलता की ओर ले जाते हैं, अपितु आत्मोन्नति की दिशा भी प्रदान करते हैं। यह केवल एक पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि मानव जीवन के प्रत्येक स्तर का मार्गदर्शन करने वाली दिव्य प्रणाली है।


दुर्भाग्यवश, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में इस समृद्ध परंपरा को उपेक्षित कर दिया गया । ग से गमला और गधा पढ़ाया जाने लगा l शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविका और नौकरी तक सीमित कर दिया गया, जिससे चरित्र-निर्माण, आत्मचिंतन जैसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उपेक्षित हो गए । परिणामस्वरूप, नई पीढ़ी अपने आध्यात्मिक मूल्यों और सांस्कृतिक जड़ों से दूर होती गई

हम भ्रमित हुए अस्ताचल वाले देशों को जब देखा....

कौशल विकास के विद्यालय खोलने पर जोर है  लेकिन यदि उसके साथ जीवनबोध, नैतिकता, संस्कार और आत्मचेतना न जोड़ी जाए तो प्रशिक्षु केवल एक मशीन बनकर रह जाता है,जो काम तो कर सकता है, परंतु क्यों कर रहा है, किसके लिए कर रहा है, इसका बोध नहीं होता। आत्मस्थता का समय ही नहीं मिलता

शान्ति और आनन्द की बात तो बेमानी है

अब समय आ गया है कि हम शिक्षा को केवल अर्थोपार्जन का साधन न मानकर उसे जीवन-परिष्कार का माध्यम बनाएं। सनातन दृष्टिकोण को पुनः व्यवहार, विचार और आचरण में स्थान दें जिससे आत्मबल, विवेक, सेवा-भाव, समाज और देश के प्रति उत्तरदायित्व की भावना जाग्रत हो सके

आचार्य जी जैसे अन्य शिक्षक तैयार हों जो दुविधाग्रस्त न हों जिससे अन्य विद्यालयों में भी युगभारती जैसी संस्थाएं तैयार हों 


इसके अतिरिक्त अर्थ अनर्थ कब बनता है भैया पंकज जी का उल्लेख क्यों हुआ विजय कौशल जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें

17.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 17 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४९ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  17 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४९ वां सार -संक्षेप


विधि का विधान अर्थात् वह व्यवस्था, जो हम माया से लिपटे व्यक्तियों के प्रयासों से परे होती है। यह नियति के रूप में कार्य करती है। जीवन में जो कुछ घटता है, उसका एक कारण और पूर्व विधान होता है। विधि का विधान पूर्वकर्मों, समय और भाग्य की सम्मिलित संकल्पना को दर्शाता है। मनुष्य केवल प्रयास कर सकता है, परिणाम विधि के विधान के अधीन होता है। इसे दैव या प्रारब्ध भी कहा जाता है। जो  कुछ विधि का विधान हमारे साथ है  उसे स्वीकारें वह विधि का विधान ऐश्वर्यवान् अर्थात् जिसमें कोई कमी नहीं है ऐसे भगवान् की कृपा से परिशोधित संशोधित अनुकूल किया जा सकता है अतः भगवान् पर विश्वास बनाए रखें



भगवान् राम की अनन्त करुणा, कृपाशीलता और भक्तवत्सलता का अत्यन्त भावपूर्ण चित्रण करती ये पंक्तियां देखिए

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥


मेरी सभी प्रकार से सुध लेने वाला वही है, जिसकी कृपा की कोई सीमा नहीं है।  

राम जैसे श्रेष्ठ स्वामी हैं और मैं ऐसा कुसेवक हूँ, परन्तु वह करुणा के सागर हैं, इसलिए अपनी दृष्टि से मुझे भी पालते हैं।


राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥ 27॥


राम नाम नृसिंह भगवान् है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा॥ 27॥

हम प्रह्लाद के समान जापक जन हैं 

तुलसीदास जी के साथ जो विधि का विधान था वह भगवान् राम की कृपा से अनुकूल हो गया 

हम लोगों ने भी भगवान् राम की कृपा से एक संगठन के माध्यम से समाज सेवा और राष्ट्र सेवा का बीड़ा उठाया है उस पर ध्यान बनाए रखें

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया वीरेन्द्र त्रिपाठी जी, भैया मोहन जी की पुत्री का नाम क्यों लिया  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रचारक विजय कौशल जी, प्रेम भूषण जी, रज्जू भैया, ईश्वर चन्द्र जी का उल्लेख क्यों किया जानने के लिए सुनें

16.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 16 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४८ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  16 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४८ वां सार -संक्षेप

कल आचार्य जी ने बताया था


ज्ञान के वास्तविक तत्त्व और उस ज्ञान के प्रसारण की शैली को समझने के लिए मानस बालकांड के प्रारम्भ के दस ग्यारह दोहे और उनके बीच की चौपाइयां अवश्य देखें

अब आज की वेला में प्रवेश करते हैं


शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि वह जीवन के उच्चतर मूल्यों  जैसे शान्ति, विवेक, आत्मोन्नति और समाजोपयोगिता के लिए होनी चाहिए।  


मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ देखिए


शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी;

लो मूर्खते! जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी॥


  शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी तक सीमित कर दिया गया है।  ज्ञान की अपेक्षा चाटुकारिता और धनसंपन्नता को मूल्य मिला।

 यदि शिक्षा जीवन में चरित्र, दृष्टिकोण और सेवा की भावना नहीं लाती, तो वह केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाती है

इस कारण शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक है 

हमें अपने लिए ही उत्तम कोटि का सेवक बनना है अपने अस्तित्व को संसार की चमक धमक में विस्मृत नहीं करना है और तभी हम वास्तविक समाज सेवा कर सकते हैं 

बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, "आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।" संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है।

भारतीय आर्ष परम्परा अद्भुत है अप्रतिम है जो उस दिव्य दृष्टि को प्रकट करती है जिसमें जीवन के प्रत्येक पक्ष को धर्म, ज्ञान, तप, सेवा और आत्मबोध से संयोजित किया गया है। यह परम्परा केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि ऋषियों की अनुभूत और तपस्वियों की जानी हुई जीवन-पद्धति है।

यह परम्परा बताती है कि जीवन का उद्देश्य केवल भोग नहीं, मोक्ष है,ज्ञान का अर्थ केवल सूचना नहीं, आत्मसाक्षात्कार है  धर्म केवल पूजा नहीं, आचरण की पवित्रता है  

और राष्ट्र केवल भौगोलिक भूमि नहीं, एक सांस्कृतिक चेतना है अतः बिना भ्रमित हुए भयभीत हुए हमें उसे आत्मसात् करना चाहिए और अपनी संतानों को भी उससे परिचित कराना चाहिए


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया दिनेश भदौरिया जी का नाम क्यों लिया लखनऊ जैसा अधिवेशन कितने वर्षों में हो जानने के लिए सुनें

15.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 15 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४७ वां सार -संक्षेप

 जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  15 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४७ वां सार -संक्षेप

संसार में हम रह रहे हैं तो अनन्त समस्याओं का हमें सामना करना पड़ता है किन्तु हमें व्याकुल नहीं होना चाहिए अपनी व्याकुलता को स्वयं शान्त करना ही आत्मसंयम है। जब हमारे ऊपर हनुमान जी जैसे कृपालु, हितैषी,पराक्रमी और आश्रयदाता की छाया हो

रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

महावीर विक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।

, तब हमें किसी प्रकार की हीनता या दुर्बलता का भाव नहीं रखना चाहिए।   

हम उनके भक्त हैं, और उनका आशीर्वाद हमारी रक्षा, प्रेरणा और संबल है। इसलिए अपने मन को स्थिर रखें, स्वयं को जागरूक करें, और सदा उत्साही, निडर एवं आत्मबल से भरपूर बनें।


भारत के ऋषियों, तपस्वियों  आदि की तपस्या, ध्यान और साधना से जो आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न हुई है, वही आज हम राष्ट्रभक्तों को चेतना, बल और ऊर्जस्विता प्रदान कर रही है। यह साधना केवल आत्मकल्याण तक सीमित नहीं रही है

हम जितना इस साधना के प्रतिफल को अपने आचरण, विचार और कर्म में उतारेंगे तथा उसे समाज में बाँटेंगे, उतना ही राष्ट्र का और हमारा मङ्गल होगा।एकांगी जीवन न जिएं

समाज और राष्ट्र के प्रति इसी भाव के कारण हमने अपना लक्ष्य बनाया है 

राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष 

और इसी कारण हमें अपने कार्यक्रमों को सफल बनाने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए जैसा एक कार्यक्रम २० २१ सितम्बर को होने जा रहा है तो उसे भी प्रभावी और सफल बनाएं ताकि समाज राष्ट्र और धर्म का कल्याण हो 

इसके लिए ऐसा विश्वास का वातावरण निर्मित करें कि समाज हमारे ऊपर विश्वास करते हुए  हमें धन समर्पित करे


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मानस के किस भाग को  पढ़ने  का परामर्श दिया विराट् पुरुष नाना जी देशमुख का नाम क्यों लिया किस तूफान में पैर टिकाने हैं  ५ की जगह ३ वर्ष में क्या करना उचित है जानने के लिए सुनें

14.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 14 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४६ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  14 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४६ वां सार -संक्षेप

हमारी संस्था युग-भारती  सनातन धर्म जिसकी  विशेषता यही है कि उसमें प्रत्येक कार्य, व्यवहार और जीवन की छोटी-बड़ी गतिविधियों में परमात्मा और जीवात्मा के संबंध का ध्यान समाहित रहता है। जिसमें कर्म केवल भौतिक प्रयोजन से नहीं, बल्कि ईश्वर-अर्पण की भावना से किया जाता है।  जिससे यही दृष्टिकोण जीवन को आध्यात्मिक बनाता है और धर्म को केवल उपासना तक सीमित नहीं रहने देता, बल्कि जीवन का प्रत्येक क्षण ईश्वर-स्मरण और साधना का अवसर बन जाता है,की उज्ज्वल परंपराओं एवं विचारधारा के संगठित जागरण का प्रयास है। इसका उद्देश्य इन शाश्वत मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाकर समाज में आत्मबोध, सांस्कृतिक चेतना और सुसंस्कारों की पुनर्स्थापना करना है। हम समाज के साथ समरस रहते हुए, मनोरञ्जनपूर्ण आकर्षण से इतर उसे श्रेष्ठ जीवनपथ की ओर प्रेरित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं।


हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है 

राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष

और इस उद्देश्य में स्पष्ट है कि हमें अपने देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचाना है


आचार्य जी कहते हैं कि अध्यात्म शौर्य से प्रमंडित होना चाहिए

शौर्य प्रमंडित अध्यात्म का अर्थ है ऐसा अध्यात्म जो केवल कोमल भावनाओं, त्याग, मौन और वैराग्य तक सीमित नहीं रहता, अपितु उसमें शौर्य, पराक्रम, साहस और कर्तव्यनिष्ठा भी समाहित होती है। यह वह दृष्टि है जो धर्म की रक्षा हेतु आवश्यकता पड़ने पर रणभूमि में उतरने का भी संकल्प लेती है।यह अध्यात्म केवल एकांतवास या निष्क्रिय तपस्या तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें जागरूकता, सक्रियता और तेजस्विता का समन्वय है।

आचार्य जी ने  कल सम्पन्न हुई बैठक की चर्चा करते हुए परामर्श दिया कि २० और २१ सितम्बर के अधिवेशन की तैयारियों में अभी से उत्साहपूर्वक जुट जाएं 

जहां हमारी इकाइयां गठित हैं वे अपने कार्य व्यवहार को प्रतिवर्ष प्रकाशित करें

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया नीरज जी  १९८१ और भैया रामेन्द्र जी १९९६ की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें

13.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 13 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४५ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण तृतीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  13 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४५ वां सार -संक्षेप

ये सदाचार संप्रेषण एक जीवंत, प्रबुद्ध और कर्मशील जीवन का आह्वान हैं

आचार्य जी नित्य हमें आत्मकल्याण के साथ समाज और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व का बोध भी कराते हैं

जैसा कि विदित है, आगामी २० एवं २१ सितम्बर  २०२५ को ओरछा में आयोजित होने वाले युग -भारती राष्ट्रीय अधिवेशन जिसका मुख्य विषय 

स्वावलंबन है अर्थात्  स्वयं पर निर्भर रहना। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर आश्रित न होकर अपने ही संसाधनों, क्षमताओं और पुरुषार्थ के द्वारा कार्य करना । (यह आत्मनिर्भरता का भाव है जो व्यक्ति को सम्मान, आत्मविश्वास और स्वतंत्रता प्रदान करता है।)

की तैयारियाँ  अत्यन्त उत्साह और गंभीरता के साथ अग्रसर हैं। इन तैयारियों की समीक्षा, चिन्तन विचार एवं सम्यक् नियोजन हेतु साथ ही उत्साह का वातावरण निर्मित करने के लिए आज ओरछा में आयोजन समिति के साथ  एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बैठक संपन्न होने जा रही है, जिसमें कानपुर, लखनऊ आदि नगरों से प्रतिनिधिगण सहभागिता हेतु एकत्र हो रहे हैं।

आचार्य जी ने परामर्श दिया कि बैठक में सुविचारित ढंग से समय का सदुपयोग होना चाहिए

इसके अतिरिक्त भैया मोहन जी भैया नीरज जी  भैया विवेक जी का नाम आचार्य जी ने क्यों लिया जानने के लिए सुनें

12.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 12 जुलाई 2025 का मार्गदर्शन १४४४ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  12 जुलाई 2025 का मार्गदर्शन

  १४४४ वां सार -संक्षेप


ऋग्वेद (10.191.4) की एक अद्भुत ऋचा,

"वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः"  अर्थात् हम राष्ट्र में जाग्रत पुरोहित बनें, केवल उद्घोष नहीं, एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक संकल्प है। इस ऋचा से हमारा पौराणिक स्वरूप भी परिलक्षित होता है आत्मबल, राष्ट्रप्रेम और जागरूकता के अद्वितीय समन्वय इस शास्त्र-सम्मत स्वर को लक्ष्य बनाना, यह दर्शाता है कि हम अपने राष्ट्र के लिए केवल बाह्य रूप से नहीं,अपितु अंतःकरण से जागरूक, उत्तरदायी और समर्पित बनें। यह जागरण कोई आरोपित भाव नहीं, अपितु भीतर से प्रस्फुटित एक ज्वाला है — स्वप्रेरणा से प्रज्वलित।


राष्ट्र के लिए जाग्रत होने का अर्थ केवल राजनैतिक जागरूकता नहीं, अपितु सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक सहभागिता, और आत्मिक उत्तरदायित्व है। इसका भाव यह है कि हम दूसरों की प्रतीक्षा न करें, न ही किसी सहारे पर निर्भर रहें परिस्थितियों में उलझें नहीं  परिस्थितियों से सामञ्जस्य बैठाकर हम स्वयं प्रकाश बनें, केवल भोगवाद में ही न डूबे रहते हुए अपनी विकृतियों को दूर करते हुए अपने भीतर के दीप को प्रज्वलित करें, और वही आलोक राष्ट्र और समाज को भी प्रकाशित करे इसका प्रयास करें यह भी देखें कि शिक्षा,स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सुरक्षा इन चार स्तंभों पर चिन्तन करना जो हमने अपना उद्देश्य बनाया है अपने अन्दर कितना प्रविष्ट है  अगली पीढ़ी का भी उचित मार्गदर्शन करें कि वह पराश्रयता से अपने को दूर करे आत्मबोध की ओर उन्मुखता बनाए 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने पुरुषोत्तम  देव कृत भाषावृत्ति की चर्चा क्यों की भाषा शब्द का क्या अर्थ है भैया विवेक चतुर्वेदी जी भैया मोहन जी भैया राघवेन्द्र जी का नाम क्यों लिया १३ की बैठक के लिए क्या परामर्श दिया लेखन क्यों आवश्यक है १५ जून का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें

11.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण प्रतिप्रदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 11 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४३ वां सार -संक्षेप

 अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

 चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ll


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण प्रतिप्रदा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  11 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४३ वां सार -संक्षेप


जब किसी आत्मीय या परिचित को शोक होता है और हम उसके दुःख में सहभागी होते हैं, शोक संवेदना प्रकट करते हैं, साथ खड़े होते हैं  तो उसे मानसिक आश्रय मिलता है।  

इससे शोक का भार थोड़ा हल्का प्रतीत होता है, क्योंकि दुख बाँटने से घटता है। यह आत्मीयता, करुणा और सामाजिक संवेदना की सांस्कृतिक परंपरा है जो हमारे संबन्धों को गहरा बनाती है और भावनात्मक समर्थन देती है।

भैया गोपाल जी १९७६ बैच के बड़े भाई कल नहीं रहे ऐसे संकट किसी पर भी आ सकते हैं हमारा कर्तव्य है हम भैया गोपाल जी को ढाढ़स बंधाएं उनका शोक कम करें  किसी समय जब युगभारती अपने पैर जमाने का प्रयास कर रही थी भैया  गोपाल जी बहुत सक्रिय रहे थे विवेकानन्द यात्रा कार्यक्रम में भी उन्होंने बहुत परिश्रम किया था

संसार के धर्म का पालन करते हुए हम अध्यात्म को भी जाग्रत रखें अपनी शक्तियों को प्रयासपूर्वक संगृहीत करेl


 अयोध्या कांड में प्रभु राम के अयोध्या-निवास से लेकर उनके वनगमन तक की कथा वर्णित है।  अत्यंत ही मार्मिक, भावप्रवण और शिक्षाप्रद कांड


जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥

जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥


हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है l


यह संवाद दर्शाता है कि माता कौसल्या श्रीराम को वनगमन से रोकने का प्रयास करती हैं, परन्तु श्रीराम अपने कर्तव्य और धर्म के पालन में अडिग रहते हैं।

आचार्य जी ने भैया विजय गर्ग जी  भैया मोहन जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें

10.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा (आषाढ़ी पूर्णिमा/गुरु पूर्णिमा/व्यास पूर्णिमा) विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 10 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४२ वां सार -संक्षेप

 तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥

यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा (आषाढ़ी पूर्णिमा/गुरु पूर्णिमा/व्यास पूर्णिमा) विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  10 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४२ वां सार -संक्षेप


बिनु गुर होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु।

गावहिं बेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥


आज गुरु के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने का विशेष सुअवसर है। इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का संकलन और महाभारत की रचना की। उन्हें आदिगुरु माना जाता है।

व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्"

 जिसका अर्थ है कि "सारा संसार महर्षि वेद व्यास की रचनाओं का उच्छिष्ट (जूठन) है"।

 भारतीय परंपरा में गुरु को वह स्थान प्राप्त है जो जीवन को दिशा देता है, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु हमारे ऊपर सद्गुणों का आरोपण करता रहता है और वह भी बिना स्वार्थ के 


यह दिन आत्मचिंतन, स्वाध्याय और गुरुचरणों में बैठकर अपने जीवन को सुधारने का स्मरण कराता है। गुरु पूर्णिमा केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि साधना, समर्पण और शिक्षाप्रद संबंध की पुनर्स्थापना का पर्व है। गुरु शिष्य परम्परा वाले अपने सनातन धर्म में गुरुत्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है तो आइये गुरुभाव में रहते हुए  श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रवेश करें आज की वेला में


रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है जब मेघनाद ने युद्ध में भगवान् राम और लक्ष्मण पर नागपाश का प्रयोग किया। इससे दोनों भाई सर्पों के बंधन में बंध गए। यह देखकर देवता, ऋषि और वानर सेना अत्यंत चिंतित हो उठी।


इस स्थिति में गरुड़जी वहाँ प्रकट हुए और अपने प्रभाव से नागपाश को नष्ट कर दिया, जिससे श्रीराम और लक्ष्मण मुक्त हो गए। इस घटना से गरुड़जी को मोह हो गया कि ये भगवान् का अवतार नहीं हैं भयातुर होकर गरुड़जी इधर उधर मारे मारे घूमने लगे तब शिव जी ने उन्हें काकभुशुण्डि के पास भेजा

काकभुशुण्डि जी ने गरुड़जी को श्रीराम की लीलाओं और उनके दिव्य स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने बताया कि भगवान की लीलाएं सामान्य बुद्धि से परे हैं और वे अपने भक्तों के कल्याण हेतु विविध रूपों में प्रकट होते हैं।


गरुड़जी ने काकभुशुण्डि जी की कथा सुनकर अपने संदेह का निवारण किया और श्रीराम के चरणों में उनकी भक्ति और श्रद्धा और भी दृढ़ हो गई। उन्होंने स्वीकारा कि भगवान की लीलाएं अचिंत्य हैं और उन्हें समझने के लिए भक्ति और समर्पण आवश्यक है।


इसके अतिरिक्त किसने कहा रामचरित मानस शब्दावतार है

ज्ञान और भक्ति अलग अलग होने के बाद क्या हुआ

पशुत्व क्या है  जीवन का आनन्द कैसे मिलेगा

जानने के लिए सुनें

9.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४१ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  9 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४१ वां सार -संक्षेप

जब किसी की भाषा उसके भीतर के भावों से संयोजित होती है, तो वह स्वाभाविक रूप से प्रभाव छोड़ती है। भावविहीन वाणी केवल ध्वनि रह जाती है उसमें वह स्पंदन नहीं होता जो दूसरों के हृदय को छू सके।

जो व्यक्ति भावपूर्ण होकर बोलता है, उसकी वाणी केवल कानों तक नहीं जाती वह तो हृदय तक पहुँचती है। और जब यही भाव व्यवहार में उतर आता है वाणी, आचरण और दृष्टि में झलकने लगता है तो व्यक्ति आकर्षक और प्रेरणास्पद बन जाता है।

प्रभावशाली बनने के लिए कोई दिखावा, कोई अभिनय आवश्यक नहीं होता। चर्चित होने और प्रभावशाली होने में अंतर है—चर्चा प्रयासों से हो सकती है, पर प्रभाव केवल सच्चे भावों से ही संभव होता है।


सहज भाव से किया गया कर्म ही वास्तव में श्रेष्ठ होता है। जब हम किसी कार्य को करते हुए उसमें पूरी तन्मयता, श्रद्धा और मन लगा देते हैं, तो वह कार्य साधना बन जाता है।  


बिना मन के किया गया कार्य बोझ बनता है, जबकि मन लगाकर किया गया कार्य आनन्ददायक होता है और उसका परिणाम भी उत्कृष्ट होता है। 

उदाहरण के लिए संत रविदास  जो जूता सही करने वाला अपना कार्य मनोयोगपूर्वक करते थे वह प्रसिद्ध संत हो गए इसी प्रकार कबीर का उदाहरण है धन्ना सेठ हैं  हमारे यहां संतों की एक लम्बी परम्परा है ऐसा अद्भुत है हमारा देश 

और हम भ्रमित हो गए भययुक्त हो गए शासक भी ऊहापोह में रहे

भगवान् की कृपा है कि हम लोग अपने अपने कार्यों को करते हुए और बिना सरकार की ओर ध्यान दिए सामाजिक चिन्तन में रत हैं  ऐसे में हमारे कुछ कर्तव्य हैं हम चिन्तन मनन ध्यान निदिध्यासन अध्ययन स्वाध्याय में रत हों कथाओं में मन लगाएं और भावी पीढ़ी को भी कथाओं को सुनने के लिए उत्साहित करें

जैसे राम- कथा जिसके सुनने से अनेक प्रकार के आध्यात्मिक, मानसिक और नैतिक लाभ प्राप्त होते हैं

श्रीराम का चरित्र सुनने से चित्त निर्मल होता है, और विकारों का नाश होता है यह  कथा हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है विषम परिस्थितियों में धैर्य रखने की शिक्षा देती है।  हमारे भीतर सत्य, त्याग, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा जैसे गुण सहज रूप से विकसित होते हैं। इसके श्रवण से परिवार, समाज और राष्ट्र पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।हमारे तेजस में वृद्धि भी निश्चित है

पार्वती जी शिव जी से पूछ रही हैं


प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥


हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) राम ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करनेवाले हैं।

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥

उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥


फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।


अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

यह कथा  चिन्तन का एक विराट् क्षेत्र है हमारे भीतर भी कभी कभी  क्षणमात्र के लिए रामत्व आता है किन्तु  शीघ्र ही विलीन हो जाता है उसे स्थायित्व देने के लिए हमें अपने कार्य और व्यवहार में मन लगाना होगा समाजोन्मुखता के साथ

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने उत्तरी भारत की सन्त-परम्परा जो '  आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की साहित्यिक साधना की एक अनन्यतम प्रस्तुति है की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें

8.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 8 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४४० वां सार -संक्षेप

 ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।


कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  8 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४४० वां सार -संक्षेप

आइये सांसारिक समस्याओं से अपने को विरक्त करते हुए संसार के घने आवरण को विदीर्ण करते हुए प्रवेश करें आज की वेला में


सनातन धर्म में भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक कल्याण—दोनों को समान रूप से महत्त्व दिया गया है। जीवन निर्वाह के लिए जीविका आवश्यक है, किंतु जीवन का लक्ष्य केवल अर्जन नहीं, अपितु आत्मोन्नति, सेवा और धर्माचरण भी है। इसलिए संसार में रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए आत्मचिंतन, भक्ति और संस्कारयुक्त जीवन जीना ही सनातन दृष्टि है। 


इस मार्ग पर चलने से हमारे भीतर विवेक जाग्रत होता है और हम केवल पथिक नहीं रहते, अपितु पथप्रदर्शक भी बन जाते हैं—अपने लिए  और समाज के लिए भी।इस विवेक के आधार पर किसी भी कार्य को करने के पश्चात् यदि उसका परिणाम  प्रशंसात्मक हो जाए तो यह आनन्द प्रदान करता है


वर्तमान में यह चर्चा हो रही है कि क्या केवल ब्राह्मण ही कथा कह सकते हैं और शूद्र नहीं।


हाल ही में उत्तर प्रदेश के इटावा में एक गैर-ब्राह्मण कथावाचक द्वारा भागवत कथा कहने पर विवाद हुआ। कुछ लोगों ने इसे परंपरा के विरुद्ध बताया, जबकि अन्य ने इसे सामाजिक समरसता के दृष्टिकोण से उचित ठहराया। धर्मशास्त्रों में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि केवल ब्राह्मण ही कथा कह सकते हैं। यह विवाद सामाजिक पूर्वाग्रह और परंपरागत सोच का परिणाम है, न कि धर्मशास्त्रों का 

 इस विषय पर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों और ऐतिहासिक दृष्टांतों के आधार पर विचार करना आवश्यक है।


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।


तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।


श्रीमद्भगवद्गीता (4.13) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

चार वर्णों की सृष्टि मैंने गुण और कर्म के आधार पर की है। यह स्पष्ट करता है कि वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म नहीं, बल्कि व्यक्ति के गुण और कर्म हैं।


ऋषि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, किंतु तपस्या और ज्ञान के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। इसी प्रकार, वाल्मीकि जी का प्रारंभिक जीवन भिन्न था, परंतु उन्होंने रामायण की रचना की और महान् ऋषि कहलाए।

 जो भी श्रद्धा, ज्ञान और भक्ति के साथ कथा कहता है, वह धर्म का प्रचारक है। हमें चाहिए कि हम सामाजिक पूर्वाग्रहों को त्यागकर धर्म के मूल सिद्धांतों का पालन करें और सभी को समान सम्मान दें।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने गीता के १८ वें अध्याय के किन छंदों को समझने का परामर्श दिया श्री श्याम बाबू गुप्त जी का उल्लेख क्यों हुआ भैया पुनीत जी की क्यों चर्चा हुई  हम विराट् दर्शन अपने बच्चों को कैसे कराएं  वह बात कहां से लाओगे किसने कहा जानने के लिए सुनें

7.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३९ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  7 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३९ वां सार -संक्षेप


किसी भी संबंध का प्रतिष्ठान  प्रेम और विश्वास पर टिका होता है। यदि विश्वास न हो तो प्रेम टिक नहीं सकता। और जब ये दोनों—प्रेम और विश्वास—अपने पूर्ण रूप में विकसित होते हैं, तो व्यक्ति के भीतर अद्भुत शक्ति, गहरी बुद्धि, स्पष्ट विचार, उत्कृष्ट कौशल तथा कुछ कर गुजरने की प्रेरणा स्वतः जाग्रत हो जाती है। ऐसे संबंधों से ही सशक्त समाज और उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी जाती है।युगभारती के हम अंश ऐसे ही संबन्धों में विश्वास रखते हैं  हमारे  भीतर पुरुषत्व है इसी कारण हम परमात्मा के निकट हैं जो जितना अधिक पौरुषहीन है वह परमात्मा से उतना ही दूर है

गीता के सातवें अध्याय में एक छंद में भगवान् कहते हैं कि मैं पुरुषों में पुरुषत्व हूं


रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।


प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।


हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में सृष्टि का विस्तार प्रणव अर्थात् ओंकार हूँ तथा आकाश में ध्वनि और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।


पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।

पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो;


हृदय की सब दुर्बलता तजो।

प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो—


सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?

प्रगति के पथ में विचरो उठो;


पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥


जब पुरुषार्थ लक्ष्य से संयुत होता है  तब साधक की समस्त शक्तियाँ केंद्रित हो जाती हैं। उसकी बुद्धि स्पष्ट, मन स्थिर और कर्म निर्णायक हो जाता है। लक्ष्य यदि उच्च हो और पुरुषार्थ सतत, तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। यही संयोजन व्यक्ति को महान् उपलब्धियों तक पहुँचाता है।सामर्थ्य पुरुषार्थ का पर्याय है और सामर्थ्य के लिए उत्साह अत्यन्त आवश्यक है वर्तमान में जो हमारा लक्ष्य है वह है २० और २१ सितम्बर का अधिवेशन सफल हो उसकी सफलता हमारे उत्साह में वृद्धि करेगा

इसके अतिरिक्त १३ जुलाई के विषय में आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें

6.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 6 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३८ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  6 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३८ वां सार -संक्षेप

हम सृजन के सारथी हैं

 सृजन का सारथीत्व वास्तव में एक दायित्व है, यह केवल कुछ नया रचने का कार्य नहीं, अपितु समाज, संस्कृति और चेतना को उचित दिशा देने का प्रयत्न भी है। यह समस्याओं का समाधान भी निकालता है हमारा मार्ग निर्माण का है, संवर्धन का है,विध्वंस, आलोचना या अराजकता हमारा मार्ग नहीं। हम संयम, विवेक और श्रम से प्रेरित होकर सकारात्मक परिवर्तन के वाहक बनते हैं।


सृजनशील व्यक्ति समाज के लिए एक प्रकाश -स्तम्भ होता है। उसकी लेखनी, उसकी वाणी, उसके आचरण आदि में दिशा और दृष्टि होती है। युगभारती हम सृजनशील व्यक्तियों का एक संगठन है और जब संगठन  एक ही लक्ष्य, विचार और भावना में संगठित होकर चलता है, तब सामूहिक शक्ति का निर्माण होता है। अतः

"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।"  

— ऋग्वेद 10.191.2

एक साथ चलो, एक साथ बोलो, तुम्हारे मन एक साथ जानने वाले हों।

इसी सामूहिक शक्ति के निर्माण के लिए हम बार बार प्रयास करते हैं बैठकें करते हैं कार्यक्रम करते हैं जैसा एक विशिष्ट कार्यक्रम २० और २१ सितम्बर को ओरछा में होने जा रहा है जिसके लिए एक बार १३ जुलाई को हम लोग गम्भीर चिन्तन हेतु ओरछा में ही एक बैठक करने जा रहे हैं


लक्ष्य तक पहुँचे बिना, पथ में पथिक विश्राम कैसा


लक्ष्य है अति दूर दुर्गम मार्ग भी हम जानते हैं,

किन्तु पथ के कंटकों को हम सुमन ही मानते हैं,

जब प्रगति का नाम जीवन, यह अकाल विराम कैसा ।। 1।।


और हमारा लक्ष्य है 

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने आचार्य श्री गणेश शङ्कर जी का उल्लेख क्यों किया 

मूर्तिपूजा कितनी करनी है आदि जानने के लिए सुनें

5.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 5 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३७ वां सार -संक्षेप

 आओ हम जलें आओ हम चलें...


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  5 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३७ वां सार -संक्षेप


साधनापूर्वक इन सदाचार संप्रेषणों को सुनना केवल शाब्दिक अनुभव नहीं होता, यह आत्मा को जाग्रत करने वाला माध्यम है। जब हम नियमित रूप से इन विचारों का श्रवण करते हैं, तो हमारे भीतर छिपे हुए सद्गुण धीरे-धीरे उभरने लगते हैं। यह हमें हमारी मूल भारतीय संस्कृति, उसके आदर्शों और जीवन मूल्यों से संयुत करता है।  

इन संप्रेषणों से हम केवल स्वयं को नहीं, अपितु अपने परिवार और समाज को भी दिशा देने में समर्थ होते हैं। त्याग, सेवा, समर्पण जैसे गुण जीवन में स्थिरता लाते हैं, तो वहीं दान, पुण्य, साधना और विराग हमें जीवन के उच्चतर उद्देश्य की ओर प्रेरित करते हैं।  


यह प्रक्रिया हमारे भीतर चल रहे विकारों — जैसे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार — को धीरे-धीरे क्षीण करती है और सुपंथ अर्थात् धर्म, संयम और विवेक के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।  यह प्रक्रिया हमें अपने साहित्य की ओर उन्मुख करती है


अंततः हम न केवल आत्मविकास करते हैं, बल्कि यह संकल्प भी लेते हैं कि जीवन  जो एक कथा है (और जहां कथा है वहां व्यथा अवश्य होती है) में कुछ ऐसा करें जिससे हमारा अस्तित्व दिशा-दिशा को आलोकित कर सके, समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके और राष्ट्र को परम वैभव  पर पहुंचा सके यही इन विविध विषयों  को समेटकर चलने वाले सदाचार संप्रेषणों का गूढ़ और महान् उद्देश्य है

 विशेष तथ्य यह है कि ये सदाचार संप्रेषण एक लम्बी दूरी तय कर चुके हैं

इसके अतिरिक्त गंगा -भाव क्या है भैया श्री शीलेन्द्र जी के पिता श्री रामकिशोर जी का उल्लेख क्यों हुआ भैया विभास जी भैया पुनीत जी भैया प्रदीप जी भैया अजय कृष्ण जी भैया नीरज जी भैया मोहन जी का नाम क्यों आया कौशल विकास के एक केंद्र  की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें

4.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 4 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३६ वां सार -संक्षेप

 गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।


यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।।


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  4 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३६ वां सार -संक्षेप

संस्कार जगाने वाले ये सदाचार संप्रेषण ईश्वर -प्रेरित प्रक्रिया के अन्तर्गत हैं और इनके मूल में  सहज स्वभाव वाले सहज चिन्तन वाले और अपने कार्यों के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित तपस्वी उच्च कोटि के साधक विश्व-रत्न पं दीनदयाल उपाध्याय  का तप और उनके उत्सर्ग से उपजा भावनात्मक किन्तु सशक्त प्रतिकार है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज आदि की तरह हमने भी यह संकल्प लिया है कि हम सभी राष्ट्र के कल्याण हेतु जागरूक, उत्तरदायी और सक्रिय बनें। यह कार्य केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि एक समूह-चेतना के साथ होना चाहिए, जिससे हम एक संगठित, विचारशील और राष्ट्रनिष्ठ समाज का निर्माण कर सकें। यही हमारा कर्तव्य है और यही सच्ची राष्ट्रसेवा है।

"वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः" ऋग्वेद (१०.१९१.२)

हम सबका ध्येय है अपने राष्ट्र को चरम वैभव, गौरव और समृद्धि तक पहुँचाना,  

नैतिकता, संस्कृति, विज्ञान, शक्ति और सेवा के माध्यम से भले ही वह गिलहरी-प्रयास हो  

(जब वानर सेना समुद्र पर पुल बना रही थी, तब एक गिलहरी भी अपने शरीर को जल में भिगोकर रेत में लोटती और पुल पर जाकर रेत झाड़ती। वानरों ने उसे तिरस्कारपूर्वक हटाया, लेकिन श्रीराम ने गिलहरी के प्रयास को सराहा और उसके पीठ पर स्नेह से हाथ फेरकर तीन रेखाएँ बना दीं, जो आज भी गिलहरी की पीठ पर देखी जा सकती हैं।)

 कोई भी प्रयास छोटा नहीं होता; भगवान सबके योगदान को स्वीकार करते हैं।

इसके अतिरिक्त

बूजी ने भूमि पर शयन क्यों किया, श्रद्धेय गोखले जी का उल्लेख क्यों हुआ, किसने कुछ क्षणों के लिए अपनी आंखें बन्द कर कहा मुझे यह विद्यालय नहीं लगता..., एक जगदीश जी  क्या देखरेख करते थे, भैया मनीष जी की चर्चा क्यों हुई, ६ जुलाई का क्या प्रसंग है जानने के लिए सुनें

3.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल अष्टमी/नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३५ वां सार -संक्षेप

 यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।


समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल अष्टमी/नवमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  3 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३५ वां सार -संक्षेप


आचार्य जी नित्य प्रयत्नशील रहते हैं कि हमारे विकार दूर हों और हमारे भीतर शक्ति, जिससे हम कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकें; बुद्धि, जिससे हम सत्य-असत्य का विवेक कर सकें; विचार, जो हमें सही दिशा दें; कौशल, जिससे हम अपने कर्तव्यों को दक्षता से निभा सकें; और संसार में रहने की शैली, जिससे हम संयम, मर्यादा और सन्मार्ग पर रहकर जीवन जी सकें—ऐसे गुण विकसित हों।


उनका यह प्रयास हमें न केवल व्यक्तित्व-विकास की ओर ले जाता है, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाता है।और इसी कारण हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष

हमारे सनातन धर्म में यह प्रयास किया जाता है कि जीवन में शान्ति रहे और उसके आधार पर जगत् में शान्ति का प्रयत्न होता रहे


मनुष्य की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें।

गीता के चौथे अध्याय में बताया गया है कि संसार के निर्माता से हमने कितनी  शक्ति बुद्धि विचार आदि गुण प्राप्त किए और उनका कितना सदुपयोग किया 

यही दिव्य ज्ञान है

अपरा से परा की ओर उन्मुख होना

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।


ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।


जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ संकल्प और कामना से रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से जल गये हैं, उसको ज्ञानीजन भी बुद्धिमान् कहते हैं।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अक्षय अवस्थी जी २००८ और भैया मनीष कृष्णा जी १९८८ का नाम क्यों लिया  संवाद कहां आवश्यक हैं अधिवेशन के विषय में आचार्य जी ने क्या चर्चा की जानने के लिए सुनें

2.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 2 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३४ वां सार -संक्षेप

 एक अकेला बैठकर बतलाता सब मौन 

जानें भीतर बैठकर साथ दे रहा कौन


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  2 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३४ वां सार -संक्षेप


कुतूहलजनक हैं ये सदाचार संप्रेषण जिन्हें नित्य सुनने का यदि हम संकल्प कर लें तो हमें अपने प्रेम आत्मीयता से समृद्ध संगठन जो हमें शान्ति सुख आनन्द देता है के विषय में भी जानकारी मिलेगी योजनाओं से भी हम अवगत होंगे और हमारे भीतर आत्मशक्ति जाग्रत होगी

आचार्य जी हमें परामर्श दे रहे हैं कि हम चिन्तन मनन ध्यान धारणा अध्ययन स्वाध्याय लेखन भक्ति में रत हों 

इन साधनों से हमारा आत्मिक बल बढ़ेगा,हम परिष्कृत और सुसंस्कृत होंगे, विचारशक्ति में निखार आएगा और आन्तरिक स्थिरता प्राप्त होगी।  

यह मार्ग न केवल आत्म-विकास का है, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी उपयोगी है।  

नियमित अभ्यास से जीवन सार्थक और सारगर्भित बनता है।


भावयुक्त कार्य का अद्भुत प्रभाव होता है 

प्रेम आत्मीयता का प्रभाव भी विलक्षण होता है इसी कारण हमारा संगठन युगभारती विशिष्ट है

स्वामी रामतीर्थ जब जापान यात्रा पर जा रहे थे, तब एक नवयुवक ने पूछा —  

आपके साथ कौन है?"

स्वामी जी ने मुस्कराकर उत्तर दिया:  

आप ही हैं मेरे साथ।

यह उत्तर केवल एक साधारण वाक्य नहीं था, बल्कि अद्वैत वेदान्त की गहराई से भरा हुआ था।  

स्वामीजी ने उस नवयुवक में भी स्वयं को ही देखा क्योंकि उनके लिए सारा विश्व एक ही आत्मा का विस्तार था।

उनका यह भाव बताता है कि सच्चा संत न केवल ईश्वर को सर्वत्र देखता है, बल्कि हर प्राणी में ईश्वर का अंश अनुभव करता है।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया प्रदीप जी भैया पुनीत जी भैया अरविन्द जी भैया राघवेन्द्र जी भैया पंकज जी भैया शौर्यजीत जी का नाम क्यों लिया  शौर्य कमजोर होने से क्या हुआ पाटी पूजन की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें

1.7.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल षष्ठी/सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 1 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण १४३३ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल षष्ठी/सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  1 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४३३ वां सार -संक्षेप


सनातन धर्म अद्भुत है क्योंकि यह केवल एक मत नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। इसमें वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियाँ, आचार, शास्त्र सब समाहित हैं  इसका दर्शन आत्मा, ब्रह्म, जन्म-मरण, मोक्ष जैसे सूक्ष्म विषयों को स्पर्श करता है।  यह तर्क, विवेक और अनुभव पर आधारित है।सनातन धर्म का प्रत्येक सूत्र हमें आत्मविकास, समाजहित और लोककल्याण की ओर ले जाता है। यह धर्म शरीर के विकारों को दूर करता है मन शान्त करता है जिसके कारण बुद्धि उद्बुद्ध हो जाती है और व्यक्ति सत्कार्य करने में प्रवृत्त हो जाता है

गीता में कहा गया है 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।


शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।

तुम शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तुम्हारा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।किन्तु आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करना चाहिए अद्भुत है हमारी यज्ञमयी संस्कृति


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः — यज्ञभाव से किया गया कर्म ही बंधनमुक्त करता है। हर कार्य परमात्मा को अर्पित भाव से करें 

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।


भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।

 जो यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं अर्थात् देवयज्ञादि करके उससे बचे हुए अमृत नामक अन्न को भक्षण करना जिनका स्वभाव है वे सब पापों से छूट जाते हैं तथा जो उदरपरायण लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं वे स्वयं पापी हैं और पाप ही खाते हैं।अन्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से। पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।।

हमारा सनातन धर्म हमें शक्तिसम्पन्न बनाता है आस्था विश्वास  प्रदान करता है समाजोन्मुखी जीवन जीने की प्रेरणा देता है 


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने १३ जुलाई को होने वाली बैठक के विषय में क्या बताया,हथवाल द्वारा जूठे किए उबले उड़द को संन्यासी द्वारा खा लेने वाला क्या प्रसंग है श्री कृष्ण गोपाल जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें